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मंगलवार, 1 सितंबर 2020

संत सतगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज की वाणी:मन जीवात्मा में इतना मिलाप जैसे दूध में घी


बीसवीं सदी के महान संत सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज 

का अमृत वचन 

आइए

 सत्संगी बंधुओं 

आप लोगों के लिए सदगुरु महाराज का

 अमृत वचन को लेकर हाजिर हूं 

और एक निवेदन है प्रवचन को पूरा पूरा पढ़ें

 तब ही पूरा लाभ मिलेगा और

 मनन भी करें आइए पढ़ें👇👇👇


🙏🙏।।ॐ श्री सद्गुरवे नमः।।🙏🙏🌺🌺

बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि। 

महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर।।

प्यारे लोगो!

आपलोगों को यह अच्छी तरह जानने में आता होगा कि शरीर से जो कुछ भी काम करते हैं, उसको काम करने के लिए लगानेवाला मन है। 

मन यदि किसी काम को करने के लिए प्रेरणा नहीं करे तो हाथ, पैर, शरीर आदि कोई काम नहीं कर सकता।

 मन भीतर में रहता है और सब काम करता रहता है। एक बात और है कि मन ही सब कुछ नहीं है, मन के साथ आप भी हैं अर्थात् जीवात्मा रहता है। आप जीवात्मा हैं, भीतर में रहते हैं। 

मन के संग जीवात्मा नहीं रहे तो मन कुछ नहीं कर सकता, जैसे इन्द्रियों के साथ मन नहीं रहे तो इन्द्रियाँ कुछ कर नहीं सकतीं।

 जैसे बाहर में इन्द्रियाँ हैं, वैसे ही भीतर में इन्द्रिय, मन है। कोई कहता है - मेरा मन है।

 तो वह वैसा ही हुआ जैसे आप कहते हैं - मेरा घर, मेरा शरीर है। 


घर उसका है, जो उसमें रहता है; वह घर नहीं है। 

उसी तरह जो कहता है - मेरा पैर, तो वह पैर नहीं है, पैर उसका है। उसी तरह ‘मेरा मन' कहनेवाला भी मन नहीं है, वह मन के संग में वहाँ रहता है।

 मन का काम बाहर-भीतर होता है, किंतु अपना काम क्या है - कुछ मालूम नहीं होता।

मन और जीवात्मा में इतना मिलाप है, जैसे दूध में घी। दूध और घी दोनों एक साथ रहते हैं और दोनों को अलग-अलग भी किया जाता है। 

जो काम दूध से होता है, वह काम घी से नहीं और जो काम घी से हो सकता है, वह दूध से नहीं होता। उसी तरह मन से जो काम हो सकता है, वह जीवात्मा से नहीं और जो जीवात्मा से हो सकता है, वह मन से नहीं।

 जीवात्मा सूक्ष्म है।

संसार में दो तरह के पदार्थ हैं - एक सत् और दूसरा असत्।


 जो विनाश नहीं हो, बदले नहीं, वह सत् है। जो विनाश हो, बदलता रहे, वह असत् है।

 शरीर कुछ दिनों तक रहता है; किंतु यह बच्चे से जवान, फिर बूढ़ा हो जाता है। कुछ काल शरीर ठहरता है, फिर नहीं रहता है। मन भी एक तरह नहीं रहता। यह सभी जानते हैं। बच्चे में मन कैसा, जवान में कैसा और बूढ़े में एक तरह का, फिर दूसरी तरह का। 

जैसे देह में अदल-बदल होता है, वैसे मन में भी अदल-बदल होता है।

 शरीर जैसे कमजोर और बलवान होता है, उसी तरह मन भी कमजोर और बलवान होता है। जो ज्ञानी है, उनका मन वैसा नहीं बदलता, जैसे साधारण जन का बदलता है। ज्ञानी लोग समझाते हैं कि 

झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार नहीं करना चाहिए, तो नहीं करते हैं।

 किंतु साधारण लोग इन बातों को सोच-समझकर भी संसार की ओर झुक जाते हैं। भोग की ओर मन हो जाता है और वे पाप में गिर जाते हैं। इस प्रकार मन एक तरह नहीं रहता।

दूध से घी निकाला जाता है, तो दूध का दाम कम हो जाता है। जितनी देर में बिना घी का दूध खराब होता है, उतनी जल्दी दूध के साथ घी रहने से नहीं। उसी तरह जब जीवात्मा मन से निकल जाता है, तब मन मर जाता है; किंतु यह ऊँची बात है।


 इसी प्रकार मन भी असत् है, किंतु जीवात्मा सत् है। शरीर और मन बलवान और कमजोर होते हैं, किंतु जीवात्मा एक तरह रहता है। अपने को जीवात्मा समझो। जबतक कोई अपने को मन समझता है या शरीर को ही अपना कहकर जानता है, तबतक शरीर और संसार का जो मेल होता है, वही ज्ञान होता है अर्थात् वह शरीर और संसार को ही जानता है। जैसे स्वप्न में शरीर का ज्ञान नहीं रहता, तो संसार का भी ज्ञान नहीं रहता, संसार का भी सरोकार नहीं मालूम होता है। उसी तरह 

जबतक जीवात्मा मन के साथ है, तबतक इसको अपने का ज्ञान नहीं होता है और जो इससे काम होना चाहिए, वह भी नहीं हो पाता है।

 मन और इन्द्रियों से जानने योग्य संसार है और केवल जीवात्मा से जानने योग्य परमात्मा है। जबतक जीव संसार के पदार्थों को एकत्रित करने में रहता है, तबतक दु:खी-सुखी होता रहता है। शान्ति नहीं मिलती है। संत लोग कहते हैं - 

परमात्मा को पहचानोगे तो तुम दुःख-सुख से छूट जाओगे।

वह वैसा सुख है, जो मन इन्द्रियों के भोगों से ऊपर है। उसके बाद दु:ख नहीं होता। उसको पाकर और कुछ पाना नहीं रहता। उसके पाने से संसार-बंधन से छूटकर मुक्ति पाता है, जन्म-मरण से छूट जाता है। इसी का उपदेश संतों ने दिया। उन्होंने कहा, 

यदि तुम उसे नहीं प्राप्त करते हो, तो तुम काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकारों में फँसकर दु:ख उठाते रहोगे।* इसके लिए ‘नेम, धरम, आचार, तप, ज्ञान, जोग, जप, दान' आदि कितना ही करो; किंतु ये रोग नहीं छूटते। इसका मतलब यह नहीं कि नेम, धरम, आचार, तप, ज्ञान, जोग, जप, दान आदि नहीं करो। यह सब काम तो समय-समय पर करना ही पड़ता है। किंतु यह मत समझो कि इन्हीं से सब विकार दूर होंगे। 

इसके लिए ईश्वर की भक्ति करो। उसको पहचानो।

 पहले अपने को पहचानो। अपने को पहचानने के लिए नयन से देखते रहो अर्थात् दृष्टि-साधन करो। इसके पहले मूर्ति-ध्यान करो। इसके भी पहले जप करो। जप करने से मूर्ति-ध्यान करने में बल मिलेगा। 

मूर्ति-ध्यान करने से दृष्टि-साधन में सहायता मिलेगी। जिसकी दृष्टि-साधन क्रिया ठीक-ठीक होती है, उसको अपनी स्थूल देह का भी ज्ञान नहीं रहता है।

 वह जानता है कि मैं कुछ हूँ और कुछ पा रहा हूँ। इतना ही नहीं है, और भी है।


 इसके बाद शब्द को पकड़ना है, जो ईश्वर की ध्वनि है। जो इस शब्द को पकड़ता है, उसके बचे और सूक्ष्म, कारण, महाकारण आदि सब शरीर छूट जाएँगे। वह अकेला हो जाएगा और ईश्वर को प्राप्त कर लेगा।

 इतना मार्ग तय करना है। इसमें बहुत समय लगता है। 

जो विशेष करते हैं, उनके लिए जल्दी रास्ता तय होता है और जो आहिस्ते-आहिस्ते करते हैं, उनको देर में।

इसलिए सब कोई नित्य नियमित रूप से ध्यान अभ्यास कीजिए। धीर-धीरे, होते-होते एक-न-एक दिन उस मंजिल को तय करके अवश्य परम प्रभु परमात्मा को प्राप्त करेंगे। 

सत्संग से विचार संभलता है और ध्यान के लिए प्रेरणा मिलती है।

 सत्संग नहीं करने से जो नहीं करने योग्य कर्म है, वह भी करने लगता है। इसलिए प्रतिदिन सत्संग अवश्य करना चाहिए।।

श्री सद्गुरु महाराज की जय



 

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