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शुक्रवार, 5 मार्च 2021

धन यौवन का गर्व न कीजै-सतगुरू मेंहीं

*।।ॐ श्री सद्गुरवे नमः।।
बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि। महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर।। धर्मानुरागिनी प्यारी जनता! मैंने तो आज तक अपने को कुछ ऐसा नहीं जाना है। अपनी परख और अपनी जाँच से मैंने अपने को वैसा नहीं पाया, जैसा कि आपने अभिनंदन पत्र देकर मुझे सम्मानित किया है। मैं उसके सर्वथा अयोग्य हूँ। कल्ह भी आपलोगों ने अभिनंदन पत्र दिया था। उसे आशीर्वाद समझकर ग्रहण करता हूँ। आपलोग जानते हैं कि मैं सत्संग के निमित्त यहाँ आया हूँ। *सत्संग में संतों के वचनों का अवलंब लेता हूँ।* गुरु महाराज की यही आज्ञा है। सन् 1909 ई० से लेकर आज 1954 ई० तक संतवचन के आधार पर सत्संग हुआ है, होता चला आ रहा है। संतों के वचन में ईश्वर को मानने का बड़ा आग्रह है। *ईश्वर नहीं हो तो संत-वचन छूँछ है।* जो ईश्वर पर विश्वास नहीं करता, संत उससे सहमत नहीं। बहुत लोगों का कहना है कि ईश्वर को बुद्धि के विचार से समझा दो। जो बुद्धि-विचार से परे है, उसे बुद्धि के विचार से कैसे समझाया जाय? संतलोग कहते हैं, ईश्वर कैसा होता है यह जानो। *ईश्वर ससीम वस्तु, व्यक्त वस्तु नहीं है।* ईश्वर-स्वरूप के लिए – *व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता। अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता।।* तथा - *राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर। अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह।।* गोस्वामीजी ने कहा है। *वह स्वरूपतः अपार अर्थात् असीम है।* इस पर सोचो कि ऐसा कुछ हो सकता है या नहीं। अपार यानी जिसकी सीमा नहीं हो सकती हो किसी परिधि से घेरा नहीं जाय। ऐसा कुछ हो सकता है या नहीं। यदि कहो सब ससीम ही ससीम है, तब प्रश्न होगा कि सब ससीमों के पार में क्या है? इसके उत्तर में बिना असीम कहे प्रश्न हल हो नहीं सकता। यदि कहो कि सब ससीमों को जोड़कर एक असीम होगा, तो यह हो नहीं सकता कि सब ससीमों को जोड़कर असीम हो गया। *सबसे पहले का जो है, वह असीम अवश्य है।* यदि उसे ससीम माने तो उसकी सीमा के पार में कुछ और क्या होगा, वही असीम होगा। तब उसी असीम को क्यों नहीं परमात्मा माना जाय। सभी संतों यानी कबीर साहब, नानक साहब, पलटू साहब, तुलसी साहब, उपनिषद् आदि सभी के वचनों में यही है कि ईश्वर स्वरूपतः अनंत है। थोड़ा तर्क और विचार भी दृढ़ कर देता है कि एक अनंत तत्त्व - परमात्मा अवश्य है। एक-एक पिण्ड में जो रहनेवाला है, वह उत्सुक रहता है कि सुख मिले। इसकी पूर्ति के लिए वह संसार के पदार्थों में अपने को लगा-लगाकर खोजता है। फिर भी सुख दूर ही रहता है। *संसार में विद्वान, धनवान कोई भी हो, वह पूर्ण रूपेण सुखी नहीं।* बलवान, रूपवान, धनवान कबतक रहेगा। संयोग-लगन से धन घट जाता है। बुढ़ापा आने से रूप और बल घट जाता है। पहला रूप और बल नहीं रहता। बुढ़ापा आता है, वह सुरूप को कुरूप और बलवान को निर्बल बना देता है। पहले तो रोग होता है। शायद ही कोई रोग से बचते हों। इसीलिए कबीर साहब ने कहा -
*धन यौवन का गर्व न कीजै, झूठा पँच रंग चोल रे।* कितना भी सुंदर शरीर हो, एक दिन अवश्य छूटेगा। धन-परिवार सभी छूटेंगे। जो इस शरीर में रहनेवाला है, जो शरीर-सुख में भूला रहता है, असली सुख का जिसको पता नहीं है। तो वह हानि में जा रहा है। इस बात को संत लोग जानते हैं और कहते हैं संसार में सुख नहीं। संसार के परे का जो पदार्थ है, उसकी ओर चलो, उस तक पहुँचो, उसको पहचानो। *संसार को पहचानकर तुम अतृप्त रहते हो, लेकिन परमात्मा को पहचानकर तुम तृप्त हो जाओगे।* परमात्मा सबको दे रहा है, किंतु वे जान नही सकते हैं कि परमात्मा हमको देता है। सबसे विशेष देना यह है कि परमात्मा अपने को हमसे छिपाकर नहीं रखे। उसके दर्शन से मन तृप्त हो जाता है, तब कुछ माँग नहीं रहती, इच्छा नहीं रहती कि जागतिक सुख मिले। इसलिए ईश्वर की भक्ति करो। गुरु नानकदेवजी का वचन याद आता है - *ऐसी सेवकु सेवा करै, जिसका जीउ तिसु आगे धरै।* फूल, पत्ती, नैवेद्य आदि को चढ़ानेवाले बहुत होते हैं, किंतु अपने को कैसे चढ़ावें, यह नहीं जानते। यह जीव इस शरीर में ऐसा फँसा हुआ है कि उसको शरीर और जीव एक ही जैसे मालूम होते हैं। किसी मृतक को देखते हैं तो एक विचित्र वैराग्य होता है कि यह शरीर बेकाम हो गया। कितने समझते हैं, शरीर गया, तुम भी गए। किंतु मुझे इसका विश्वास नहीं। शरीर जड़ है। इसमें चलना, बोलना, फिरना कैसे होता है? *बिना ज्ञानमय पदार्थ के यह जड़ तत्त्व कुछ कर नहीं सकता।* कोई कहे कि बुद्धि-यंत्र से बूझता-सूझता है, इन्द्रिय यंत्र से काम करता है। सभी जड़-जड़ तत्त्व मिलकर चेतन उत्पन्न हो गया। किंतु इसका विश्वास नहीं होता। जड़ अपरा प्रकृति और चेतन परा प्रकृति श्री मद्भगवद्गीता के अनुकूल है। *जड़ असत्, परिवर्तनशील है और चेतन सत्, अपरिवर्तनशील है।* जीव सदा सुख के लिए इच्छुक रहता है। वहाँ चेतन जब शरीर से निकल गया, तब यह शरीर मर गया। संतों ने कहा कि यह मत समझो कि यही केवल पंचरंगा चोल है। ‘पंच रंग चोल' यानी पंच तत्त्वों का शरीर। रंग कहने का मतलब पंच तत्त्वों के पाँच रंग। पृथ्वी का रंग पीला, पवन तत्त्व का रंग हरा, अग्नि का रंग काला, जल का रंग लाल और आकाश का रंग सफेद होता है। यह पंच तत्त्वों का शरीर झूठा है। केवल एक ही शरीर नहीं है। केवल दार्शनिक ढंग से कहकर ही नहीं समझाया, बल्कि कथा कहकर समझाया। सावित्री और सत्यवान की कथा से ज्ञात होता है कि स्थूल शरीर के अंदर सूक्ष्म शरीर भी है। सूक्ष्म शरीर को ही लिंग शरीर कहते हैं। यमराज ने सत्यवान के स्थूल शरीर से लिंग शरीर को निकाला था, तब सत्यवान मर गया था। जब उसी लिंग शरीर को यमराज ने स्थूल शरीर में प्रवेश करा दिया, तो सत्यवान जीवित हो उठा। मतलब यह कि *शरीर के अंदर शरीर है।* साथ-ही-साथ यह भी सीखना चाहिए कि पातिव्रत्यधर्म कितना बड़ा धर्म है। *जिस प्रकार स्त्रियों के लिए पातिव्रत्य धर्म है, उसी प्रकार पुरुषों के लिए पत्नीव्रत धर्म है, जैसे श्रीराम ने इस धर्म का पालन किया था। एक पत्नीव्रती पुरुष की आध्यात्मिक शक्ति बढ़ती है।* खैर, यह एक छोटी-सी शाखा निकली थी। उसे छोड़ दीजिए और अब अपने मूल विषय पर आइए। जड़ शरीर चार हैं - स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण। ये चारो शरीर छूट जायँ, चेतन आत्मा पर कोई आवरण नहीं रहे, अकेले रहे, तब ईश्वर कहीं छिप नहीं सकता। ये ही चारो जड़ शरीर घूँघट के पट हैं। *संतों ने यहाँ ईश्वर-भक्ति का बड़ा आग्रह किया है।* शरीर लेकर किसी के आगे गिरना शरण होना नहीं है। बल्कि ‘ऐसी सेवकु सेवा करै, जिसका जीउ तिसु आगे धरै।‘ यह शरण होना है। *ऐसी भक्ति का काम करें कि सब शरीर छूटकर ईश्वर के सामने हो जायँ।* इसी का प्रचार हमारे गुरु महाराज ने किया। इसी भक्ति पर संतों का बड़ा जोर है। यह विषय तो गहरे ग्रंथ में अवश्य है, किंतु बहुत कम लोग जानते हैं। यह सब कहने से लोगों को मालूम होता है कि कोई नयी बात कह रहे हैं, किंतु बात पुरानी है। चारों शरीरों से निकल जाइए, तो आप ईश्वर के सामने हो जाइएगा। इसके लिए सोचिए कि यह कैसे होगा। आप नित्य प्रति सोते-जागते हैं। जागने से गहरी नींद में जाने के समय एक अवस्था तन्द्रा होती है, उसमें सबको मालूम होता है कि बाहर की तरफ से बेखबरी हो रही है और कुछ-कुछ ज्ञान भी होता रहता है। शरीर की शक्ति भीतर की ओर खिंचती है। फिर बाहर की ओर से अचेत हो जाते हैं। एक ही बिछावन पर और कुछ होता हो, तो आपको उसका ज्ञान नहीं होता। इसी तरह साधना द्वारा बाहर स्थूल तल से छूटना हो सकता है, जब आप भीतर प्रवेश करें। इसलिए *संतों ने अंतर्मुख होने कहा। जैसे-जैसे भीतर चलेंगे, वैसे-वैसे घूँघट उतरते जाएँगे। जब सब उतर जाएँगे, तब प्रभु को पहचानेंगे।* लोग कहते हैं, ईश्वर सर्वत्र है, फिर जाओगे कहाँ? मैं कहता हूँ ईश्वर सर्वत्र है, तो तुम पहचानते भी हो? *जहाँ जाकर पहचानेगे, वहाँ जाना होगा।* परमात्मा सर्वत्र है। संत कबीर साहब ने कहा - *सबकी दृष्टि पड़े अविनाशी, विरला संत पिछानै। कहै कबीर यह भरम किवाड़ी, जो खोलै सो जानै।।* परमात्मा सब जगह है, पहचान में क्यों नहीं आता? परमात्मा स्वरूपतः अनादि, अनंत, असीम है। वह सर्वव्यापक है। जो सर्वव्यापक है, वह सबसे विशेष सूक्ष्म है। जो सबसे विशेष सूक्ष्म है, उसको इन्द्रियों से कैसे पकड़ सकते हैं? इन्द्रियाँ स्थूल हैं। जैसे आँखों पर पट्टी बंधी रहने से बाहर का दृश्य नहीं देखा जाता, उस पट्टी को हटाने से देखा जाता है। उसी प्रकार शरीररूप पट्टी को हटाइए, तब ईश्वर के दर्शन होंगे। इसके लिए भक्ति कीजिए। भक्ति का अर्थ सेवा है। भूखे को खिलाना, प्यासे को पानी पिलाना, दुखियों की सेवा करनी भक्ति है। किंतु *ईश्वर को क्या चाहिए? उनको तो खाना-पीना कुछ नहीं, सोना-जागना कुछ नहीं। वह तो ऐसा है कि सबको खिलाता है, वह खाता नहीं। सबको पहनाता है, वह कुछ नहीं पहनता। सब कोई सोते हैं और वह जगकर पहरा करता है।* फूल-पत्ती आदि चढ़ाते हैं, यह आपका प्रेम है। इसके द्वारा आप अपने को ईश्वर की ओर लगाते हैं। किंतु ईश्वर को ये सब चीजें कुछ नहीं चाहिए। ईश्वर सर्वव्यापी है, सर्वगत है। *सर्वरूपी कहने से सगुण होता और सर्वगत कहने से निर्गुण होता है।* सगुण और साकार कहने से दो का बोध होता है। सगुण अर्थात् गुण सहित। साकार अर्थात् आकार सहित। आशय यह है कि कोई बिना गुण का है। उसने गुण को धारण किया तो सगुण हुआ। कोई निराकार है, उसने आकार धारण किया तो साकार हुआ। *भक्ति ऐसी होनी चाहिए कि स्थूल सगुण साकार से आरंभ कर निर्गुण निराकार के पार तक पहुँचा जा सके।* यह पवित्र मंगल कार्य सबको करना चाहिए। किंतु कैसे कीजिएगा? *हाथ में गोबर लगा रहे तो उसको इत्रदान में डुबाना ठीक नहीं होगा।* उसी प्रकार हृदय को विकारों से, पापों से अपवित्र कर परमात्मा को कैसे छू सकते हो? इसलिए *अपने को पवित्र बनाओ यानी झूठ चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार से अपने को बचाकर रखो और अंतस्साधन करो, तो प्रभु को पाओगे।* *औषधि करै औ पथ रहे, ताका वेदन जाय।* कोई आदमी अपने रोग निवारण के लिए औषधि तो करे, किंतु पथ्य नहीं करे, तो रोग कैसे छूटेगा? *अंतर्मुख होइए, पवित्र रहिए और ईश्वर का भजन कीजिए, कल्याण होगा।* यह प्रवचन मुंगेर जिलान्तर्गत जमालपुर निवासी राय बहादुर श्रीदुर्गादासजी तुलसी के आवास पर दिनांक 17.4.1954 ई० को रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था। *श्री सद्गुरु महाराज की जय*

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