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बुधवार, 22 जून 2022

अंतर अजब बिलास-महर्षि हरिनंदन परमहंस जी महाराज

पूज्य
आचार्य श्री महर्षि हरिनंदन परमहंस जी महाराज का प्रवचन 👇👇👇 पुस्तक 👇👇👇👇👇 -------------:अन्तर अजब बिलास:---------- सभी लोगों को ईश्वर ने बनाया। संसार के सभी जीवों का सृजन करनेवाले भी वे ही हैं। हमें जो कुछ भी चाहिए, उसे देनेवाले भी परमात्मा ही हैं। हम जो कुछ ग्रहण कर रहे हैं- अन्न, जल, हवा- सब कुछ के निर्माता भी वे ही हैं। यह सब परम प्रभु परमात्मा से प्राप्त करके भी हमारी स्थिति क्या है? हम शरीररूपी जेलखाने में पड़े हुए हैं। शरीर और संसार के कैदी बने हुए हैं। आप जैसा चाहते हैं, वैसा हो नहीं पाता। जैसे दिन के बाद रात और रात के बाद दिन होता है, उसी तरह से जीवन में सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख का क्रम लगा हुआ है। दुःख कोई नहीं चाहता, फिर भी वह आता है और उसे हमें भोगना पड़ता है, उसपर हमारा कोई वश नहीं होता। हम जैसा नहीं चाहते हैं, वैसा हो जाता है। ईश्वर-परमात्मा की मौज के सामने किसी की एक नहीं चलती। हम दुःखी होते हैं। ऐसा कबतक होता रहेगा? जबतक हम बंधन में रहेंगे। ईश्वर की जो मौज होगी, उसी के अन्तर्गत हमें रहना पड़ेगा। हमने फूस के छप्परवाले मकान बनाये, सोचा उसी में गुजर-बसर होगी, आँधी आयी और छप्पर उड़ गया, कच्चा मकान ढह गया। खेत-बगीचों में अच्छी फसल लगायी, पत्थर (ओले) गिरे और सारी फसल बर्बाद हो गयी। जैसा नहीं चाहते थे, वैसा हो गया। हम स्वाभाविक रूप से दुःखी हुए। ऐसा तबतक होता रहेगा, जबतक संसार में रहेंगे; क्योंकि संसार में एकरूपता नहीं रहती। आप चाहें कि दिन ही हो, रात न हो, तो यह संभव नहीं है। दिन हुआ है, तो रात भी होगी ही; सुख मिला है, तो दुःख होगा ही। यह संसार का नियम है। सुख में हम हर्षित होते हैं और दुःख में विलाप करते हैं। गो० तुलसीदासजी महाराज ने लिखा है- जड़ हरषहिं सुख दुख बिलखाहीं। दोऊ सम धीर धरे मन माहीं ॥ यह सुख-दुःख सबके जीवन में आते हैं। ये दिन-रात की तरह जीवन में साथ लगे रहते हैं। सामान्य मनुष्य ही नहीं, शरीर धारण करके जब-जब भगवान भी इस पृथ्वी पर अवतरित हुए, उन्हें भी दारुण दुःख झेलने पड़े। त्रेतायुग में भगवान श्रीराम ने राजसी सुख प्राप्त किया, तो वनवास का दुःख और पत्नी वियोग की पीड़ा भी सही, सम्राज्ञी सीताजी को वन-वन भटकना पड़ा और लक्ष्मणजी ने शक्तिवाण की मर्मतुद पीड़ा भोगी । द्वापर में पाण्डवों ने बारह वर्षों के वनवास और एक वर्ष के अज्ञातवास में कौन-सी पीड़ा न भोगी होगी। राज-सुख में रहनेवाले पाण्डवों ने कितना कष्ट झेला होगा, यह अकल्पनीय है। राजा नल भी द्यूतक्रीड़ा में अपना राज-पाट सव हार गये। उन्हें भी अपनी पत्नी के साथ एक धोती में जंगलों की खाक छाननी पड़ी। कितनी विपदा उन्होंने वनवास में सही, ठिकाना नहीं। जंगल में पति-पत्नी दुर्योग से राह भटक गये और अलग-अलग हो गये। कहाँ राज सुख और कहाँ यह दुर्दशा! वे वर्षों बाद मिले। वर्षों बाद उन्हें अपना राज्य भी पुनः प्राप्त हुआ। महाभारत में इसकी लंबी कथा है। अतीव सुख में रहनेवाले बड़े लोगों के जीवन में जब दुःख आते हैं, तो वे दुःख भी बड़े होते हैं। साधारण लोग ऐसी विपदाएँ, ऐसे दुःख को सह नहीं सकते। जीवन में हमेशा एक-सी स्थिति नहीं रहती सूरदासजी महाराज ने लिखा है संपति विपति विपति सों संपति, देह धरे को यहै सुभाई। शरीर धारण करने का यही स्वभाव है। सबके जीवन में ऐसा होता है। सुख-दुःख की आँख-मिचौनी से हम बच नहीं सकते, भाग नहीं सकते। कहाँ भागेंगे? संसार और शरीर दोनों ही कैदखाने हैं। हम तो स्वयं शरीररूपी कैदखाने को ढोते फिरते हैं। मृत्यु की मार झेलकर फिर इसी कैदखाने में आ जाते हैं, संसाररूपी कैदखाने में पहुँच जाते हैं। इससे छूट नहीं पाते, जिसमें दैविक, दैहिक और भौतिक-त्रय ताप लगे ही रहते हैं। ईश्वरीय कोप से उपजता है दैविक ताप। रोग-व्याधि से क्लांत हुए शरीर को दैहिक ताप सताता है। एक जीव द्वारा दूसरे जीव को पहुँचनेवाला कष्ट भौतिक ताप कहलाता है। इन त्रय तापों के अलावा एक ताप और है, जिसे झेलने के लिए मनुष्य अभिशप्त है, वह है- मानसिक ताप । काम, क्रोध, लोभ, मद, मत्सर, द्वेष, छल, कपट, पाखंड से उत्पन्न पीड़ा मानसिक ताप देती है। इस ताप से चित्त हमेशा अशांत और व्यथित रहता है। यह सब तबतक होता रहेगा, जबतक हम शरीर और संसार के बंधन में बँधे रहेंगे। प्रश्न उठता है कि इन बंधनों से हम कैसे छूटें? गो० तुलसीदासजी महाराज ने बताया है गुरु बिनु भवनिधि तरै न कोई। जौं बिरंचि संकर सम होई॥ ब्रह्मा, विष्णु और महेश जैसे देव ही क्यों न हों, गुरु की कृपा के बिना कोई भी संसार-सागर के पार नहीं उतर सकता। यही सहजोवाई भी कहती हैं हरि ने जन्म दियो जग माहीं। गुरु ने आवागमन छुटाहीं ॥ अर्थात् ईश्वर ने हमें यह मानव-शरीर तो दिया लेकिन बारंबार जन्म-मरण का अपार दुःख सहना पड़ता है, उस दुःख से छुटकारा दिलानेवाले गुरु ही होते हैं। हरि ने पाँच चोर दिये साथा। गुरु ने लई छुटाय अनाथा ॥ ये पाँच चोर हमारी पाँच ज्ञान-इन्द्रियाँ हैं। इनको ही चोर कहा। इसलिए कि इन्हें जो ग्रहण नहीं करना चाहिए, जिसे ग्रहण करके अन्त में दुःख ही दुःख होता है, ये उसे ही ग्रहण करती हैं, उसी दिशा में जाती हैं। आँखें रूप, कान शब्द, नाक गन्ध, जिह्वा रस और त्वचा स्पर्श ग्रहण की ओर हमेशा प्रवृत्त रहती हैं। इन पाँचों ज्ञान-इन्द्रियों की इस प्रवृत्ति से होता क्या है? हमलोग रोज पाठ करते हैं- 'मृगवारि सम सबहीं प्रपञ्चन्ह, विषय सब दुखरूप हैं।' उस ओर जाकर ये इन्द्रियाँ केवल दुःख ही दुःख का कारण बनती हैं; फिर भी ये बारंबार उधर ही उन्मुख रहती हैं। शरीर की ये पाँचो इन्द्रियाँ पाँच चोर हैं-'हरि ने पाँच चोर दिये साथा। गुरु ने लई छुटाय अनाथा ॥' गुरु इनसे छूटने का यत्न बतलाते हैं, ताकि ये इन्द्रियाँ उन विषयों की ओर नहीं जायें। आँख में चेतनधार आती है, तब आँख इन्द्रिय देखती है बाहर की ओर। कहते हैं, इस तरह से साधन करो कि चेतनवृत्ति का सिमटाव हो जाय। अगर आँख में चेतन-धार न आये, तो आँख इन्द्रिय बाहरी विषय की ओर प्रवृत्त नहीं होगी। विषयों से प्राप्त सुख क्षण-भर में दुःख में परिवर्तित हो जाता है। जैसे किसी प्रिय जन के आगमन की प्रसन्नता (आँखों द्वारा देख लेने का हर्ष), उसकी पीड़ा जानकर तत्काल दुःख में बदल जाती है। पुत्र की प्राप्ति पर अपार सुख हुआ; किन्तु उसकी मृत्यु हो गई, तो उतनी ही भीषण पीड़ा हो गयी। कहाँ रहा सुख? तो सब विषय दुःख रूप हैं। इस तरह इन्द्रियों से प्राप्त सुख उसकी समाप्ति पर दुःख में बदल जाते हैं। अतः इन्द्रियों से होनेवाले सुख में दुःख भी लगा हुआ है। इन्द्रियों के माध्यम से जिस ओर जाकर सुख ही नहीं, दुःख भी हो जाता है, उस ओर से इन्द्रियों को लौटाना चाहिए। जो नहीं देखना चाहिए, जो ग्रहण नहीं करना चाहिए, उसे ही इन्द्रियाँ देखना और ग्रहण करना चाहती हैं; इसीलिए उन्हें चोर कहा गया है। गुरु ही इसका भेद बतला सकते हैं कि इन्द्रियों की तृष्णा से कैसे छूटा जा सकता है। ऐसा विलक्षण ज्ञान देनेवाले गुरु हैं 'हरि ने रोग भोग उरझायौ, गुरु जोगी कर सबै छुटायौ ।' संसार में रहकर रोग, भोग, भय सब कुछ होता है, गुरु ही इससे छूटने का उपाय बतलाते हैं। सहजोबाई कहती हैं- राम तजूँ पै गुरु न बिसाऊँ।' सहजोबाई के गुरु थे चरणदासजी महाराज। उनकी वाणी में हमलोगों ने सुना है गुरु बिन और न जान, मान मेरो कहो। चरण दास उपदेश, विचारत ही रहो ॥ कहते हैं, गुरु के समान और कोई नहीं। उन्होंने कारण वेद रूप गुरु होहिं, कि कथा सुनावहीं। बतलाया पंडित को धरि रूप, कि अर्थ बतावहीं ॥ वेदों में बहुत तरह की बातें हैं। गुरु भी ज्ञानस्वरूप होते हैं। वे वेद के समान ज्ञान की बातों को कहते जाते हैं, विविध कथाएँ, उपदेश वे सुनाते हैं, समझाते हैं। वेद को पढ़कर सब कोई उसके रहस्य को समझ नहीं पाते, पंडित (ज्ञानी) ही उसके अर्थ को समझा पाते हैं, वैसे ही गुरु भी ज्ञान की गूढ़ बातों को, संतों के कथनों को, उनके रहस्य को बतला समझा देते हैं। कल्पवृक्ष गुरुदेव मनोरथ सब सरौं । कामधेनु गुरुदेव छुधा तृस्ना हरें ।। जिस तरह कल्पवृक्ष के नीचे जाने से सारी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं और कामधेनु के द्वारा सब तरह का भोजन प्राप्त होता है, ठीक वैसे ही गुरु की शरण में जानेवाले की सभी इच्छाएँ पूरी हो जाती हैं। जो गुरु को सदा याद रखते हैं, वे गुरु की शरण में हैं। जौं गुरु बसै बनारसी, शिष्य समुंदर तीर। एक पलक बिसरै नहीं, जो गुण होय शरीर॥ गुरु का शरीर चाहे दूर हो; परन्तु जो मन को गुरु के पास रखते हैं, समझिये कि वे गुरुरूपी कल्पवृक्ष की छाया में हैं। उनके मन में जो इच्छा होगी, वह पूर्ण होगी। गुरु की शरण में रहनेवाले को कोई कमी नहीं होती। गुरु सब कुछ देनेवाले हैं। जिन लोगों ने गुरु महाराज को प्रत्यक्षतः देखा है, उन्हें स्मरण होगा कि भक्त और श्रद्धालु जन नाना प्रकार की चीजें उनके लिए ले आते थे और वे चाहते थे कि उनके अर्जन में से थोड़ा-कुछ गुरुदेव की सेवा में लगे । ऐसे श्रद्धालुओं द्वारा अर्पित चीजों कि संख्या इतनी अधिक होती थी कि गुरु महाराज के सेवक ही नहीं, उनके आस-पास के लोग भी तृप्त हो जाते थे। ऐसा कुछ भी नहीं था, जो उनको अलभ्य हो । राजा-महाराजा को भी जो दुर्लभ होता है, वह सन्तों के पास परमात्मा की दया से सहज ही आता है। गुरु सब कुछ देनेवाले होते हैं। अनेक देवताओं की कृपा से जो प्राप्त हो सकता है, उसे गुरुदेव अकेले ही देनेवाले हैं। गंगा सम गुरु होय, पाप सब धोवहीं । सूरज सम गुरु होय, तिमिर हरि लेवहिं ॥ गंगा के लिए कहा गया है कि वह पाप धोनेवाली है। बाहर की गंगा में स्नान करके कोई पाप मुक्त हो जाये, ऐसा नहीं होता। जो गुरु की शरण में पड़े रहते हैं, वे पापों से मुक्त हो जाते हैं। तो फिर गंगा का उदाहरण क्यों दिया गया? संत लोग कहते हैं कि 'बाहर में जो आप गंगा देखते हैं, सिर्फ वही गंगा नहीं है। गंगा अवश्य पाप धोनेवाली है; लेकिन वह कौन-सी गंगा है? 'गगन धार गंगा बहै, कहैं संत सुजाना हो।' अपने अन्दर में जो गंगा है, वही असली गंगा है। उस गंगा में जो स्नान करते हैं, वे सब पापों से मुक्त हो जाते हैं। सन्तों ने आन्तरिक ज्योति और नादरूपी गंगा का उदाहरण दिया है। गुरु भी गंगा के समान सब पापों को धोनेवाले हैं। और 'सूरज सम गुरु होय, तिमिर हरि लेवहीं।' रात्रि का अंधकार दूर करने की सामर्थ्य किसे है? यह सामर्थ्य एकमात्र सूर्य में है, किसी और में नहीं। ठीक उसी तरह अज्ञान का जो घनान्धकार है, उसे दूर करने की सामर्थ्य सिर्फ गुरुदेव में है। गुरु महाराज कहते हैं-'तन-मन और धन को अर्पित करके गुरु चरणों की सेवा करो।' हम आसक्त होकर नहीं रहें-न तन में आसक्ति, न धन की आसक्ति और न मन में अहंकार की भावना। आसक्ति तजकर और सब कुछ गुरु के चरणों में अर्पित करके उनकी सेवा करें। गुरु महाराज की वाणी में आया है तन मन धन को अरपि, गुरूपद सेव करो। 'मेँहीँ' आज्ञा पालि, दुस्तर भव सुख से तरो ॥ वे कहते हैं कि अगर ऐसा करोगे, तो यह जो दुस्तर है, बड़ा भयंकर है, उसे सुख से तर जाओगे, पार कर जाओगे। जब अर्पित करेंगे तन, मन, धन को, तब गुरुदेव इस संसार सागर से पार कर देंगे, जिस संसार के लिए संत राधास्वामी ने कहा है कि भवसागर धारा अगम, खेवटिया गुरु पूर। नाव बनाई शब्द की, चढ़ बैठे कोइ सूर॥ यह संसार-सागर बड़ा भयंकर है। इसे कोई अपने आप तर नहीं सकता। अपना कोई बल नहीं, शक्ति नहीं, सामर्थ्य नहीं कि भवसागर को पार कर सकें। इसीलिए तो हमलोग रोज प्रार्थना करते हैं कि 'पर निज बल कछु नाहिं है, जेहि बने कमाई ।' गुरुदेव ही पार लगानेवाले होते हैं। कैसे पार लगायेंगे? जैसे हम विपत्ति में पड़ जाते हैं,तो लोगों को पुकारते हैं, लोग आते हैं और सहायता कर देते हैं। किसी का पाँव कीचड़ में फँस गया, उसने आवाज दी और लोगों ने उसे संकट से उबार लिया। उसी तरह से हम संसार सागर में, भव-पंक में धँसे हुए हैं। यहाँ लोगों को पुकारने से सहायता नहीं मिलेगी; क्योंकि संसार के समस्त जीव तो इसी पंक में धँसे हुए हैं। सन्त सद्गुरु ही हमारी पुकार सुनकर सहायता कर सकते हैं, वे ही संसार-सागर से, भव-पंक से जीव का उद्धार करनेवाले हैं। गुरु महाराज की वाणी का जो पाठ हुआ कि 'तुम साहब रहमान हो, रहम करो सरकार। भवसागर में हौं पड़ो, खेइ उतारो पार॥' 'रहमान कहते हैं, बहुत कृपा करनेवाले को, बहुत दया करनेवाले को। गुरु रहमान हैं, दयालु हैं, वे ही अनुग्रह करके इस संसार समुद्र से पार करनेवाले हैं। सूरदासजी महाराज भी कहते हैं- 'नीर अति गंभीर माया, लोभ लहरि तरंग।' वे संसार-सागर से उबारने के लिए प्रार्थना करते हैं अबके माधव मोहि उधारि । मगन हौं भव अंबु निधि में, कृपासिंधु मुरारि ॥ वे कहते हैं- 'मैं तो अज्ञानता के कारण इस भव-सागर में आ पड़ा हूँ और इसी में मग्न हूँ। आप कृपासिंधु हैं, दया करके हे माधव! मुझे उबारिये। इस संसार समुद्र में मायारूपी जल भरा हुआ है। संसार समुद्र का लंघन मेरे वश की बात नहीं है।' 'नीर अति गंभीर माया' - माया रूपी जल अगाध है, इसे पार करना संभव नहीं है। जो इसमें आ पड़ता है, इसे ही सत्य समझने लगता है और इसी में रमा रहता है। 'लिये जात अगाध जल में गहे ग्राह अनंग।' यह लोभ हमें खींचते हुए अगाध जल में लिये जा रहा है, जिसमें 'गहे ग्राह अनंग'। 'अनंग' कहते हैं कामदेव को काम की इच्छा को । इस अगाध जल में अनंग है, जिसने हमें पकड़ रखा है। 'मीन इन्द्रिय अतिहि काटत, मोह अघ सिर भार।' इन्द्रियरूपी मछलियाँ हमें काटती हैं, जैसे बच्चा भूख लगने पर माता को काटता-नोचता है, ठीक उसी तरह इन्द्रियाँ भी अपने-अपने भोग के लिए हमें पीड़ित करती हैं। आँख सुन्दर रूप देखना चाहती है, कान अच्छा शब्द सुनना चाहता है, नासिका सुगन्ध चाहती है, जिह्वा अच्छा रस चाहती है और त्वचा स्पर्श-सुख के लिए लालायित रहती है, जिस ओर जाकर दुःख ही दुःख होता है। सन्त राधास्वामीजी महाराज कहते हैं हे इन्द्रियन तुम भोग दिवानी, क्यों फँसो काल की फाँस । हे इन्द्रियो ! तुम भोग की ओर जा तो रही हो; लेकिन उस ओर जाने से काल के फंदे में फँसोगी। जैसे मछली चारे के लोभ में वंशी में फँस जाती है, उसी तरह तुम भी फँस जाओगी। जल्दी से अब मुख को मोड़ो, अंतर अजब विलास । जैसे बने तैसे करो कमाई, धर चरनन विश्वास ॥ वे कहते हैं कि बाहर से अपने मुख (वृत्ति, ख्याल) को मोड़ो। तुम्हारे अन्दर में अद्भुत सुख है- 'अन्तर अजब विलास'। जिस तरह से हो सके, कमाई करो; अपने अन्दर का वह धन प्राप्त करो, जो परम सुख देनेवाला है। इस कमाई को करने का ज्ञान देनेवाले संत सद्गुरु ही हैं, अन्य किसी से यह ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। गुरु महाराज की वाणी के अन्तिम चरण में हमने अभी-अभी सुना है- 'गुरु की अमित बलिहार।' सत्य है कि गुरु की महिमा अपरंपार है, उनसे बड़ा अपना कोई हितैषी नहीं है। अतः हमें चाहिए कि गुरु की शरण ग्रहण करें। उनके चरणों में अटल श्रद्धा रखें। हमारा मन भाग-भाग जाता है। इस चंचल और भाग-भाग जानेवाले मन के लिए सन्त कबीर साहब ने कहा है सिपाही मन दूर खेलन मत जैये । दूर खेलन से मनुवाँ दुखित होय... हमारा मन संसार की ओर भाग जाता है, बाहरी बातों को सोचने लग जाता है। गुरु महाराज के निकट रहकर भी दूर-दूर चला जाता है। संत कबीर साहब यही कहते हैं कि मन को दूर ले जाओगे, विषयों की ओर ले जाओगे, तो दुःख होगा। बाहर की ओर मत जाओ। अपने आपको बाहर से मोड़कर अन्दर की ओर करो, तब शाश्वत सुख की प्राप्ति होगी, शांति की प्राप्ति होगी। यह तब होगा, जब हम गुरु महाराज के चरणाश्रित होकर रहेंगे। जबतक उनके चरणाश्रित होकर नहीं रहेंगे, अपने अन्दर के सुख की प्राप्ति नहीं होगी। 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏 कमेंट जरुर करें वीडियो प्रवचन 👇👇👇 https://www.youtube.com/playlist?list=PLud4sU56FoLnOF1jHHnl6Ad-wEtItI_Bs

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