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बुधवार, 26 अगस्त 2020

संत सतगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज की वाणी:मेरा यहाँ कुछ नहीं है सभी मेरे मालिक के हैं


Maharshi  mehi paramhans ji maharaj ki vani 

संत सतगुरु महर्षि मेंहीं  परमहंस जी महाराज की वाणी को पढें 

।।ॐ श्री सद्गुरवे नमः।।

बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि।

 महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर।।

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!

सबलोग अपनी मंगल-कामना करते हैं। 

सबलोग बराबर कर्म करते हैं। 



कर्म दो ही तरह के होते हैं - शुभ और अशुभ।

 इन दोनों कर्मों को करने के लिए लोग लगे रहते हैं। जो अशुभ कर्म विशेष करते हैं, वे पापी और जो शुभ कर्म विशेष करते हैं, उन्हें पुण्यात्मा कहते हैं; किंतु ऐसा नहीं कि पुण्यात्मा से पाप नहीं होता। उनसे भी पाप कर्म हो जाता है, जैसे महाराज युधिष्ठिर। 

लोग पाप का फल दुःख भोगना नहीं चाहते। पुण्य का फल सुख भोगना चाहते हैं।

 पाप और पुण्य; दोनों का फल दुःख और सुख है। किंतु पाप और पुण्य; दोनों कर्म बंधनवाले हैं। एक लोहे का बंधन है, तो दूसरा सोने का। 

पापकर्म करके लोग दान, पुण्य, तीर्थ आदि करके चाहते हैं कि पाप नाश हो जाएगा, किंतु ऐसा नहीं होता।

महाभारत के मैदान में द्रोण के तीर से सब व्याकुल हो गए थे, उन्हें कोई रोक नहीं सकता था। भगवान ने कहा कि ‘झूठा हल्ला कर दो कि अश्वत्थामा मारा गया।‘ क्योंकि द्रोण को था कि वह अपने पुत्र की मृत्यु का नाम सुनने से मर जाएगा।


 अर्जुन ने भगवान की बात को सुना ही नहीं। भीम ने अवन्तिदेश के राजा के हाथी को, जिसका नाम अश्वत्थामा था, मारकर हल्ला कर दिया कि अश्वत्थामा मारा गया। द्रोण को विश्वास नहीं हुआ। 

उन्होंने कहा कि यदि राजा युधिष्ठिर कहें, तब विश्वास करूँगा। 

सब लोगों और भगवान की प्रेरणा से उनको झूठ बोलना पड़ा कि अश्वत्थामा मरा, मनुष्य या हाथी। हाथी कहने के समय धीमें स्वर में कहा और मनुष्य कहने के समय में जोर से कहा। उसी समय लोगों ने बाजे बजा दिए। द्रोण कमजोर हो गया और मारा गया। 

इस झूठ के पाप का फल युधिष्ठिर को भोगना पड़ा और नरक भोगना पड़ा।

भगवान श्रीकृष्ण के संसार में नहीं रहने की खबर जब पाँचों पाण्डवों और द्रौपदी को मिली, तो राज्य छोड़कर चल दिए। व्रती होकर दान देते हुए तीर्थों में भ्रमण करने लगे।

पहाड़ों में पहले घटोत्कच ले जाता था, किंतु वह तो युद्ध में मारा गया था। ये लोग पैदल ही चलते थे। चलते-चलते द्रौपदी गिर गयी।

चारों भाइयों के गिरने की बात और भीम का पूछना कि ये सब क्यों गिरे? द्रौपदी को चाहिए था

 कि सब भाइयों को बराबर देखना, किंतु वह अर्जुन का पक्ष करती थी। सहदेव को पंडिताई का घमण्ड था। नकुल को अपनी सुंदरता का घमण्ड था। अर्जुन को अपने बल-पौरुष का घमण्ड था। 

जितना मनसूबा बाँधता था, उतना कर न सका। जितना काम कर न सको, उतना बोलो नहीं, इसी पाप से गिरा। भीम ने अपने लिए पूछा तो कहा कि तुम अपने बल के आगे किसी को कुछ नहीं समझते थे। 

युधिष्ठिर सदेह स्वर्ग गए, किंतु देवदूत उन्हें अंधकार के मार्ग से - खराब रास्ते होकर ले चले, जहाँ बहुत दुर्गन्ध थी।

 लौटने लगे, तब देव-माया से अर्जुन, नकुल, भीम, द्रौपदी आदि के मुँह का शब्द सुना। दो मुहूर्त के बाद फिर समाप्त हो गया।

इससे शिक्षा मिलती है कि पाप फल भोगना पड़ेगा।

स्वर्ग में जाकर फल भोगो। फल समाप्त हो जाय, तो फिर उसी के अनुकूल अमीर-गरीब के घर जन्म लो, दुःख-सुख सहो। मनुष्य पहले मन से कर्म करता है, फिर मन और देह दोनों से करता है। 


पहले सूक्ष्म मन से करता है। फिर सूक्ष्म मन और स्थूल देह से करता है। इसलिए स्थूल जगत में आकर स्थूल देह और सूक्ष्म मन के साथ दुःख सुख भोगता है। 

बिना अंकुर से वृक्ष नहीं होता। संसार में बहुत तरह के बर्तन बनते हैं। इसका मसाला मिट्टी है।

 इस शरीर के बनने के मसाले का नाम प्रकृति है। यह गुणों का सम्मिश्रण रूप है। 

ये त्रयगुण हैं - रजोगुण, तमोगुण और सतोगुण। 

रजोगुण - उत्पादक, सतोगुण - पालक और तमोगुण - विनाशक है।

 ये तीनों बराबर-बराबर भाग से बने हैं। वह प्रकृति कैसी है? इसके लिए बुद्धि निर्णय करती है, किंतु पहचान नहीं सकती, वर्णन नहीं कर सकती; क्योंकि 

वह इन्द्रिय-ज्ञान से परे है।

पहला वह मसाला जिससे सब कुछ बने, पहले स्थूल-ही-स्थूल कैसे बनेगा? इसलिए पहले ऐसा बनेगा, जो आकार-प्रकारवाला नहीं है। फिर वैसा बनेगा, जिसमें आकार-प्रकार रहेगा, किंतु सूक्ष्म। फिर ऐसा रूप बनेगा, जिसे सब देखते हैं। इसलिए इस सूक्ष्म लोक-स्वर्ग को इस स्थूल दृष्टि से नहीं देख सकते। लोग समझते हैं कि 

इसी संसार में सुख से रहना स्वर्ग में रहना है और दुःख में रहना नरक में रहना है।

 किसी को लूटकर धन लाते हो, धन लाते समय मन कैसा रहता है, दूसरे के यहाँ लूटने जाते हो, तब मन कैसा रहता है? भोगते समय भी हृदय में चैन नहीं रहता। डर सदा लगा रहता है। किंतु जो गरीब है, एक शाम भूखा ही रहता हो, किंतु यदि वह लूट-खसोट नहीं करता है तो वह घर में चैन से रहता है। उसे डर नहीं रहता कि कोई उसे चोर-डाकू कहकर पकड़ेगा। 


दान, पुण्य, तीर्थ करने से पाप कटा कि नहीं। इसकी जाँच है कि जब तुम्हारे मन में पाप-वृत्ति उदय न हो, तब समझो कि पाप खतम हो गया। 

जबतक पाप-वृत्ति उठती रहे, तबतक समझो कि पापों का नाश नहीं हुआ।

 भीम, युधिष्ठिर आदि पाँचों भाई जहाँ-जहाँ से आए थे, वहीं-वहीं गए। यह निश्चय है कि कर्म-फल नहीं छूटता, सबको भोगना पड़ता है।

काहु न कोउ सुख दुख कर दाता।

 निज कृत करम भोग सुनु भ्राता।।

कर्म-फल से कोई बच नहीं सकता।

 जब श्री राम और सीताजी भी कर्म-फल का भोग करते हैं, तो और लोगों के लिए कहना ही क्या? किंतु ध्यानविन्दूपनिषद् में आया है -

*यदि शैल समं पापं विस्तीर्णं बहुयोजनम्। भिद्यते ध्यानयोगेन नान्यो भेदः कदाचन।।

पाप करने के लिए वृत्ति भीतर में नहीं आवे, तो समझो कि पाप छूटा। ध्यानयोग करनेवाला, भगवद्भजन करनेवाला पाप के ख्यालों को छोड़-छोड़कर ध्यान में मन लगाता है। 

संसार में कर्म करता है, तो पुण्य-कर्म करता है। उसमें भी आसक्ति नहीं रखता। पाप करने की वृत्ति नहीं रहती। यह आजमाइस करने की बात है। 

ध्यान करनेवाले का मन पाप की ओर नहीं जाता।

कर्म तीन प्रकार के होते हैं - क्रियमाण, सञ्चित और प्रारब्ध। जो कर्म हम वर्तमान में करते हैं, वे क्रियमाण कहलाते हैं। क्रियमाण कर्म ही एकत्र होने पर संचित कहलाते हैं। उसी संचित में से जिसका भोग करने लगते हैं, वह प्रारब्ध कहलाता है।


ध्यानशील का क्रियमाण कर्म पवित्र होता है, क्रियमाण कर्म को फलाश छोड़कर करता है।

करना सही न लेना कुछ भी, बाना झाखर झूरों का।। - काष्ठ जिह्वा स्वामी

मस्त आदमी का यह काम है कि पाप नहीं करे। भला कर्म करे तो उसका फल नहीं चाहे। प्रारब्ध कर्म तबतक भोगेगा, जबतक शरीर रहेगा।

ध्यान में सिमटाव होता है। 

सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है।

उसकी इतनी ऊर्ध्वगति होती है। कि कर्म मण्डल को पार कर जाता है, जिसके लिए गोरखनाथजी ने लिखा - ‘जाता जोगी किनहुँ न पावा।‘ जबतक शरीर रहता है, प्रारब्ध भोगना पड़ता है, किंतु उसी तरह भोगता है, जैसे नशे में आदमी मस्त रहता है।

 ध्यानयोगी परमात्मा के पास जाता है, परमात्मा को पहचानता है। जैसे सूर्य के ताप से जाड़ा भाग जाता है, उसी तरह परमात्मा की पहचान में पाप-ताप सभी भाग जाते हैं। इसलिए सभी कोई ध्यान करो।

निधड़क बैठा नाम बिनु, चेति न करै पुकार। 

यह तन जल का बुदबुदा, बिनसत नाहीं बार।। 

आज कहै मैं काल्ह भजूँगा, काल्ह कहै फिर काल। 

आज काल्ह के करत ही, औसर जासी चाल।।

ऐसा मत करो। डर के मारे खेती करते हैं। खेती नहीं करेंगे तो अनाज नहीं होगा। भूखों रहना पड़ेगा; वस्त्र नहीं मिलेगा - इस डर से खेती का काम करते हैं। समय पर खेत जोतते हैं, कोड़ते हैं, बोते हैं, फसल काटते हैं। 

उसी तरह डरो कि यह शरीर कब छूट जाएगा, ठिकाना नहीं।

इसलिए डरो और ईश्वर का भजन करो। मांस-मछली नहीं खाओ, नशा नहीं खाओ। श्रीरामकृष्ण परमहंस ने कहा - ‘धनियों के घर की नौकरानी की तरह संसार में रहना सीखो। 

नौकरानी मुँह से तो हमेशा यही कहा करती है 

कि लड़के-बच्चे, घर-वार सब मेरे ही हैं, पर उसका मन जानता है कि मेरा यहाँ कुछ नहीं है, सभी मेरे मालिक के हैं। इसी तरह बाहर में सब काम अपना जानकर करते रहो, किंतु मन से हमेशा जान रखो - तुम्हारा यहाँ कुछ भी नहीं है, सभी मालिक के हैं। 


उसका हुक्म होते ही सब छोड़कर चला जाना पड़ेगा। इसके सिवा काम में त्रुटि होने पर मालिक की धमकी का भी डर रहता है।

संसार में अनासक्त होकर रहो और ईश्वर का भजन करो। यह सुनकर मन बहुत प्रसन्न हुआ कि यहाँ के लोग बीड़ी-सिगरेट आदि नहीं पीते। 

जो बनिया बीड़ी बेचे, उसे पाँच रुपये जुर्माना होंगे और जो उसे खरीदे, उसे दो रुपये जुर्माना। 

यह सुनकर कि मांस-मछली नहीं खानेवाले की संख्या विशेष है, बहुत खुशी हुई। जो कुछ अन्य आदमी मांस-मछली खाते हैं, उन्हें भी छोड़ देना चाहिए।

मत्स्य-मांस, नशादि खाना-पीना छोड़ दो। 

सात्त्विक भोजन करो, भजन करो, पाप-कर्मों से बचो। शान्ति-सुख से रहने का यही यत्न है।

🙏🙏श्री सद्गुरु महाराज की जय🙏🙏


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