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👉 उपस्थित धर्मानुरागी सत्संगप्रेमी
महानुभावो, माताओ एवं बहनों।
अभी पाठ में श्रीजाबालदर्शनोपनिषद के
मंत्र में आपलोगों ने सुना-
ज्ञानशौचं परित्यज्य बाह्ये यो रमते नरः ।
स मूढः काञ्चनं त्यक्त्वा लोष्टं गृह्वाति सुव्रत।।
ज्ञान-शौच (पवित्र नान) को छोड़कर
जो बाहरी शौच (पवित्रता) में लगा रहता
है, वह मूढ़ मानो सोने को छोड़कर मिट्टी
का ढेला लेता है। मतलब क्या हुआ?
मतलब यह कि हरएक को ज्ञान चाहिए,
चाहे नर हो या नारी।
ज्ञानेनहीनाः पशुभिः समानाः।
ज्ञान नहीं है तो मनुष्य ही है, तो क्या
है! पशु और आपमें कोई अन्तर नहीं है।
पशु में कौन-सा ज्ञान नहीं है? इन्द्रिय
संबंधी जो ज्ञान है, इतर प्राणी को भी है।
बहुत-से प्राणी हैं, जिनकी इन्द्रियाँ हम-आप
से ज्यादा प्रबल हैं। साधारण से साधारण
पक्षी हम-आपसे आठ गुना अधिक देखता
है। बाज दस गुना अधिक देखता है और
गिद्ध के बारे में कहा गया है कि 'गिधहि
दृष्टि अपार । गिद्ध कितना देखता है, उसका
कोई ठिकाना ही नहीं। बहुत-से प्राणी ऐसे
हैं ।
जो अंधेरी रात में भी सुगमता से देख
थोड़ा-सा गुड़ रख दीजिये, देखिये कहाँ
से मक्खी आ जाती है, कहाँ से चींटी आ
जाती है, उनकी घ्राण-शक्ति कितनी तेज
है। इस ज्ञान से मतलब नहीं है। हमारी
आँख देखती है, कान सुनता है और इन्द्रियाँ
ज्ञान करती हैं, कैसे? जिस शक्ति से
हम-आपकी इन्द्रियाँ ज्ञान करती हैं, उसका
ज्ञान, दरअसल ज्ञान है। हम-आपकी इन्द्रियाँ
जो ज्ञान करती हैं, जीवात्मा की शक्ति से
ज्ञान करती हैं। जीवात्मा जब शरीर से
निकल जाता है, आँख कहाँ देखती है, कान
कहाँ सुनता है? किसी इन्द्रिय को ज्ञान
कहाँ होता है ? सारा ज्ञान जीवात्मा को ही
होता है। जिस शक्ति से इन्द्रियाँ ज्ञान करती
हैं, उस जीवात्मा का ज्ञान दरअसल ज्ञान
है। जीवात्मा का ज्ञान होना चाहिए। जीवात्मा
का ज्ञान जिसको होता है, उसको परमात्मा
का ज्ञान होता है । ज्ञान ही सुखदायी होता
है। आज संसार में ही देखिये, संसार के
ज्ञान में जो जितना बड़ा है, उतना ही वह
संसार का लाभ, संसार का सुख ले रहा है।
जीवात्मा-परमात्मा का ज्ञान अंतिम ज्ञान है।
इस ज्ञान में अन्तिम सुख होता है। यह
ज्ञान कहाँ मिलेगा?
कठोपनिषद् में आया है-
उत्तिष्ठत
जाग्रत
प्राप्य
वरान्निबोधत।
पुरस्य धारा निशिता दुरत्ययादुर्ग पथस्तत्कवयोवदन्ति॥
(अरे अविद्याग्रस्त लोगो !) उठो,
(अज्ञान-निद्रा से) जागो और श्रेष्ठ पुरुषों के
समीप जाकर ज्ञान प्राप्त करो। कहते हैं,
उठो, तब जागो । संसार में देखते हैं- जगते
हैं, तब उठते हैं। यहाँ तो कहते हैं, उठो,
तब जागो। उठोगे, तब जागोगे। जीव का
वासा जाग्रत् अवस्था में नेत्र में, स्वप्न
कण्ठ में, गहरी नींद में हृदय में होता है।
गहरी नींद में कहाँ थे? उससे ऊपर उठे
तो स्वप्नावस्था में आये, उससे भी ऊपर
से भी ऊपर उठने पर तुरीय अवस्था में
पहुँचे, इस अवस्था में पूरा जागना हुआ।
इस जगने पर का ज्ञान कब होगा? कहते
हैं, श्रेष्ठ पुरुषों के समीप जाकर ज्ञान प्राप्त
करो। श्रेष्ठ पुरुषों के समीप जाना पड़ेगा।
उनसे युक्ति जाननी पड़ेगी कि हम कैसे
जागेंगे । वह श्रेष्ठ पुरुष कौन है ? जो जाति
में बढ़े हुए हैं, जो सम्पत्ति में बढ़े हुए हैं,
जो भौतिक विद्या में बढ़े हुए हैं- इनमें से
एक भी श्रेष्ठ पुरुष नहीं है।
तब, पलटू
साहब के वचन में है-
बड़ा होय तेहि पूजिये संतन किया बिचार ।
संतन किया बिचार ज्ञान का दीपक लीन्हा॥
ज्ञान का दीपक किसको कहते हैं?
दीपक अर्थात् प्रकाश। प्रकाश में ही ज्ञान
होता है। अभी देखिये, सूरज का प्रकाश है
तो इस प्रकाश में हमलोग ज्ञान कर रहे हैं।
जब सूरज का प्रकाश नहीं होगा तो हमलोग
बिजली जलायेंगे, पेट्रोमैक्स जलायेंगे, लालटेन
जलायेंगे या मोमबत्ती ही जलायेंगे। अगर
ऐसा नहीं करेंगे तो अंधकार में आप कहाँ
किस गड्ढे में गिरेंगे, किस चट्टान से
टकरायेंगे, क्या ठिकाना?
तो प्रकाश में ही
मान होता है। कहते हैं वह प्रकाश प्राप्त
करो, जिसमें ज्ञान होता है। जिसमें कि 'मैं
क्या हूँ'- यह ज्ञान होता है।
ज्ञान का
दीपक जब मिल जायेगा, तो तैंतीस करोड़
देवताओं का जो वर्णन आया है, सबकी
पहचान कर लेंगे।
सबकी पहचान करके
यह भी समझ जायेंगे कि कौन किस स्तर
पर है।
देवता तैतिस कोट नजर में सब को चीन्हा॥
सबका खंडन किया खोजि के तीनि निकारा ।।
तीनों में दुइ सही मुक्ति का एकै द्वारा॥
वह एक कौन है? वह, 'हरि को लिया
निकाल'- वह है परमात्मा।
हरि को लिया निकारि, बहुर तिन मंत्र विचारा।
हरि हैं गुन के बीच संत हैं गुन से न्यारा॥
पलटू प्रथमै संत जन दूजे हैं करतार ।
बड़ा होय तेहि पूजिये संतन किया बिचार ॥
साध महातम बड़ा है जैसो हरि यस होय॥
साधु का जो माहात्म्य है, जो महिमा है,
वह बड़ी है, जैसे परमात्मा- ईश्वर के
बारे में कहते हैं-
जैसो हरि यस होय, ताहि को गरहन कीजै।
इसमें
गुण है-ईश्वरत्व गुण है, परमात्मीय
गुण है-
3
तन मन धन सब वारि चरन पर तेकरे दीजै।
नाम से उत्पति राम संत अनाम समाने ।।
जितने अवतार हैं, आपने देखा होगा
ॐ' लिखा हुआ है और उसमें चित्र बना
है राम और सीता का । 'ॐ' लिखा हुआ
है और चित्र बना है कृष्ण और राधा का ।
'ॐ' लिखा हुआ है और उसमें चित्र बना
है शिव और पार्वती का। मतलब क्या ?
ॐ एक शब्द है। वह वही शब्द है जो
परमात्मा से उत्पन्न हुआ है। उसी शब्द से
सभी की उत्पत्ति हुई है।
सन्त अनाम में समाये होते हैं। शब्द
की उत्पत्तिं जहाँ से है, सन्त वहाँ पहुँचे हुए
होते हैं। सबसे ऊंचा पद वह अनाम पद है,
उससे कोई पद ऊँचा नहीं है ।
संत बोलते ब्रह्म चरन कै पियै पखारन ।
परमात्मा का कोई सगुण रूप है तो वह
सन्तों का ही रूप है। भगवान् शंकर ने
कागभुशुण्डि से कहा था--
अब जनि करेहिं बिन अपमाना।
जानेहु सन्त अनन्त समाना ।।
और भगवान राम ने तो कहा
मोतें सन्त अधिक करि लेखा ।
सन्त को हमसे विशेष करके जानो,
ऐसे ही किसी ने कह दिया, ठगने के लिये
कह दिया, सो नहीं है, बिल्कुल यथार्थ बात
है। संत कबीर साहब के वचन में है-
परम पुरुष की आरसी, साधुन की ही देह
लखा जो चाहे अलख को, इन ही में लखि लेह ॥
आईना होता है जिसमें लोग मुँह देखते
हैं। आईना जब सामने आ जाता है, तो
उसमें अपना चेहरा दिखाई देता है। अभी
हमें अपना चेहरा दिखाई नहीं दे रहा है।
दूसरे का अर्थात् सामनेवाले का चेहरा देख
लेते हैं, लेकिन अपना चेहरा नहीं देख
पाते । अपना चेहरा तब देखेंगे, जब आईना
सामने आ जायेगा । सन्त आईना हैं। उनके
सामने अगर आप चले जाइये, तो आपका
अपना चेहरा दिखलाई पड़ेगा। अभी आप
जो कहते हैं कि हमसे बढ़िया कौन है,
हमसे उत्तम पुरुष कौन है, हमसे धर्मात्मा
कौन है, वही सन्तरूपी आईने के सामने
आप चले जाते हैं तो आप स्वयं कहने लगते हैं कि हमसे बड़ा पापी कौन है
हमसे बड़ा अधर्मी कोई नहीं है
नीच कोई नहीं है।
आपको कोई
आप चले जाते है तो आप स्वय कहन
लगते हैं कि हमसे बड़ा पापी कौन,
हमसे बड़ा अधर्मी कोई नहीं है, हमस वडा
कहना नहीं चाहता है। अगर कोई ऐसा कर,
दे तो मार-पीट शुरू हो जाय। आप अपन
दूसरा ऐसा
से कहते हैं। ऐसा क्यों कहते हैं;
ऐसा आईना हैं कि जिसमें आपकी
?
कमजोरी दिखाई पड़ जाती है। जिसको
अपनी कमजोरी दिखती है, उसको समझिये
परमात्मा दिखता है।
पलटू संत न होवत नाम न जानत काय।
साध महातम बड़ा है, जैसो हरियस हाय।
सबसे बड़े हैं संत, दूसरा नाम है,
तीजै दस अवतार तिन्हे परनाम है।
ब्रह्मा बिष्णु महेश सकल संसार है,
सबके ऊपर संत मुकुट सरदार है।
सन्त क्या हैं-
इन्हीं सन्तों में से कोई
एक ऐसे होते हैं, जो अपने ऊपर भार लेकर
ज्ञान-ध्यान की बात बतलाते हैं और
कल्याण-पथ पर चलाते हैं, ये होते हैं गुरु ।
जो किसी के लिये गुरु होते हैं, औरों के
लिये सन्त होते हैं। जो औरों के लिए सन्त
होते हैं, वे किसी के लिए गुरु होते हैं। सन्त
और गुरु में कोई अन्तर नहीं है। जो सन्त हैं,
वे ही सद्गुरु हैं । जो सद्गुरु हैं, वे ही सन्त
हैं। ऐसे सन्त सद्गुरु की शरण में गये बिना
संसार-सागर से पार होना मुश्किल है।
गुरु बिनु भव निधि तरइ न कोई।
जौं बिरंचि संकर सम होई॥
आप किसी नदी को पार करने के लिए
उसके किनारे जाइये, वहाँ नावें बहुत हैं।
आप किस नाव पर चढ़ियेगा, जिस नाव पर
कुशल नाविक होगा। नाव पर आप नहीं
चढ़ियेगा । धारा कितनी ही विकराल होगी,
आप हंसते-खेलते पार चले जाइयेगा ।
हाँ,
नाविक कुशल नहीं होगा तो आपको वह
किस खाई में जाकर डाल देगा, इसका कोई
ठिकाना नहीं है। कहने का तात्पर्य संसार-
सागर को पार करने के लिए योग्य गुरुं की,
आवश्यकता होती है।
गुरु से ज्ञान जो लीजिये, सीस दीजिये दान ।।
बहुतक भोंदु बहि गये, राखि जीव अभिमान॥
बतलाया गया कि जिस तरह एक पत्थर
रास्ते में पड़ा हुआ ठोकरें खाता है, वही
जब किसी कलाकार के हाथ में पड़ जाता
है, तो उसको गढ़कर वह मूर्ति का रूप दे
देता है। तब वही पत्थर पूजनीय हो जाता
है। हम उस पर फूल चढ़ाते हैं, माला
चढ़ाते हैं, उससे अपने कल्याण की कामना
करते हैं। जैसे किसी को फाँसी की सजा
हो गई है, वह किसी वकील के पास जाता
है। वकील अपनी दलील से उसे फाँसी के
फन्दे से छुड़ा देता है। सन्त लोग ऐसे ही
होते हैं। वे ऐसे कलाकार होते हैं जो
गढ़कर सुन्दर रूप देते हैं। ऐसे वकील होते
हैं जो आवागमन की फाँसी से छुड़ा देते
हैं। ऐसे नाविक होते हैं जो कुशलतापूर्वक
भवरूपी नदी से पार करा देते हैं। इसलिए
ज्ञान के लिए गुरु की आवश्यकता है,
लेकिन वह भी जैसे-तैसे गुरु की नहीं।
सोच-समझकर गुरु करना होता है। गुरु के
बारे में परमाराध्य सद्गुरु महाराज की वाणी
में है-
मुक्ती मारग जानते, साधन करते नित्त ।
साधन करते हैं, कैसे समझेंगे-
साधन करते नित्त, सत्तचित जग में रहते।
दिन-दिन अधिक विराग, प्रेम सत्संग सों करते॥
दृढ़ ज्ञान समुझाय, बोध दे कुबुधि को हरते।
संशय दूर बहाय, सन्तमत स्थिर करते ॥
'मही' ये गुण धर जोई, गुरु सोई सतचित्त।
इन गुणों से जो युक्त हैं, उनको गुरु
मान करके उनसे ज्ञान-ध्यान की बात जान
करके और साधन करके अपने-आप के
ज्ञान में होकर और परमात्मा के ज्ञान में
होकर परमात्मा में विराजनेवाली नित्त
अविनाशी सुख को प्राप्त करें- यही सन्तों
का उपदेश है।।
श्री सतगुरु महाराज की जय
प्रिय सत्संगी बंधुओं आप पूरा पढ़ने के बाद अवश्य अधिक से अधिक शेयर करें
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जय गुरु
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