सुमिरण से क्या होता है?
https://youtu.be/01AwFbKDjVE
(साभार – सत्संग-सुधा सागर)
बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर।।
प्यारे लोगो!
सुमिरन से सुख होत है, सुमिरन से दुख जाय।
कह कबीर सुमिरन किये, साई माहिं समाय।।
राजा राणा राव रंक, बड़ा जो सुमिरे नाम।
कह कबीर सोइ पीव को, जो सुमिरे नि:काम।।
नर नारी सब नरक है, जब लगि देह सकाम।
कह कबीर सोइ पीव को, जो सुमिरे नि:काम।।
सुमिरन से मन लाइये, जैसे दीप पतंग।
प्राण तजे छिन एक में, जरत न मोड़े अंग।।
सुमिरन से मन लाइए, जैसे नाद कुरंग।
कह कबीर बिसरे नहीं, प्राण तजे तेहि संग।।
सुमिरन से मन लाइये, जैसे पानी मीन।
प्राण तजे पल बिछुड़े, सत कबीर कहि दीन।।
सुमिरण का अर्थ स्मरण करना है।
तरह-तरह से सुमिरण या याद किया जा सकता है। सुमिरण करने से क्या गुण - क्या फल होता है, सो भी कहा। परमात्मा गुरु निकट है-सतगुरु मेंहीं
सुमिरण से सुख होता है, दुःख भाग जाता है।
अंत में परमात्मा मिल जाते हैं।
राजा-रंक कोई हो, बड़ा वही है जो सुमिरण करता है। धन में बड़ा हो, प्रतिष्ठा में बड़ा हो, जाति में बड़ा हो; किंतु सुमिरण नहीं करता है, तो पारमार्थिक दृष्टि से वह बड़ा नहीं है। फल-सहित होकर जो भजन करता है, वह ठीक नहीं।क्या आप ईश्वर का दर्शन करना चाहते हैं
जो निष्काम होकर भजन करता है, वह परमात्मा को पाता है। जैसे घर से सभी चीजों को निकाल देने से खाली जगह बच जाती है, उसी तरह हृदय से सभी फलाशा छोड़ देने पर हृदय में केवल ईश्वर रह जाएँगे।
सांसारिक सभी इच्छाओं को छोड़ दो और भजन करो, तो परमात्मा मिल जाएँगे।
एक राजा की बहुत-सी रानियाँ थीं।
विदेश जाते समय राजा ने सभी रानियों से पूछा – ‘तुम्हारे लिए क्या लाऊँ।'
सभी ने अपनी-अपनी इच्छानुकूल चीजें लाने को कहा। किंतु एक रानी ने कहा कि मुझे कुछ नहीं चाहिए, केवल आप कुशलपूर्वक मेरे पास आ जाइए। राजा विदेश से लौटकर आया तो सब रानियों को उनकी माँग के अनुकूल चीजें दीं और अपनी उस रानी के पास चला गया, जिसने कुछ माँग नहीं की थी।
अब सोचिए, जिसका राजा ही अपना हो गया, उसको क्या कमी रही?
सभी खजाना उसी का हो गया। इसी प्रकार
परमात्मा जिसके हो जाएँगे,
उसको किसी चीज की कमी नहीं रहेगी।
सुमिरण तीन तरह से होता है - एक तो जोर-जोर से पुकारकर, दूसरा धीरे-धीरे बोलकर, जिसमें केवल होठ हिलते हैं और तीसरा है, जिसमें मन-ही-मन जपते हैं। मन-ही-मन जप करने से मन की स्थिरता आती है।
नाम जपत स्थिर भया, ज्ञान कथत भया लीन।
सुरति शब्द एकै भया, जल ही ह्वैगा मीन।।
लोग मुँह से मिष्ट वचन, अश्लील वचन और कटु वचन बोलते हैं, किन्तु ईश्वर का नाम जपने के लिए एकाग्र मन होना चाहिए।
बाहर क्या दिखलाइये, अंतर जपिये नाम।
कहा महौला खलक से, पड़ा धनि से काम।।
नाम जपत दरिद्री भला, टूटी घर की छान।
कंचन मंदिर जारि दे, जहँ गुरु भक्ति न जाना।।
नाम जपत कुष्टी भला, चुई चुई पड़ै जो चाम।
कंचन देह केहि काम का, जा मुख नाहीं नाम।।
ईश्वर के गुण का वर्णन करते-करते जपनेवाला उस रंग में रँग जाता है।
जो समझ-समझकर जपता है, वह ईश्वर के रंग में रँग जाता है।
जैसे कंगाल पैसे को नहीं भूलता, वैसे ही पल-पल नाम को जपो, एक घड़ी भी मत छोड़ो
जैसे पनिहारी माथे पर गगरी लेकर चलती है और रास्ते में बातचीत भी करती जाती है।
यह मानस ध्यान है।
सुमिरन से मन लाइए, ज्यों सुरभी सुत माहिं।
कह कबीर चारा चरत, बिसरत कबहूँ नाहिं।।
यह भी मानस ध्यान है।
किंतु दोनों में अंतर है। गाय का बच्चा गाय के अंग-संग नहीं है; किंतु पनिहारी की गगरी उसके अंग-संग मौजूद है, तब उस पर ख्याल रखती है। गौ और गौ के बच्चे की जो मिसाल दी गई है, उससे यह गगरी और पनिहारीवाली उपमा विशेष है। जो चिह्न आपके अंग-संग मौजूद है और साधन करके उसे कभी देख लिया, उसको यदि बराबर नहीं देख सकते हैं।
तो जिस स्थान पर वह चिह्न है, उस ओर आपका मन लगा रहे, सुरत उधर लगी रहे तो बहुत अच्छा है। दृष्टि-साधन में यदि आपने एक बार भी झलक देख ली और फिर वह नहीं देख पाते हैं तो उस ओर के लिए आपकी सुरत चलती रहेगी, उठी रहेगी, जिस ओर आपने देखा है। मेंहीं बाबा का उपदेश
उसकी बारंबार याद आपको रखनी चाहिए। यह सूक्ष्म मानस ध्यान है।
बाहर में रूप देखकर जो मानस ध्यान करते हैं, वह स्थूल मानस ध्यान है। यदि आप सूक्ष्म मानस ध्यान कर सकते हैं तो स्थूल मानस ध्यान करने की आवश्कता नहीं है। कबीर साहब ने कहा है -
सुमिरन सुरत लगाय के, मुख ते कछू न बोल।
बाहर का पट देय के, अंतर का पट खोल।।
ब्रह्मज्योतियों को देखने से और अनहद ध्वनियों को सुनने से बाहर की कोई चीज याद नहीं आती। केवल परमात्मा याद आता है। इससे परमात्मा का प्रत्यक्ष ज्ञान तो नहीं होता, किंतु उसकी वृत्ति ऊपर उठी हुई होती है। कबीर साहब ने दीप और पतंग की मिसाल दी है, वह है - प्रत्यक्ष ब्रह्मज्योति में अपनी वृत्ति लगी रहे।
नाद-कुरंग की जो मिसाल दी है, वह है - शब्द अभ्यासी को नादध्यान में उसी तरह रहना चाहिए। पानी और मछली की जो उपमा है, वह है - जैसे पानी को मछली पसन्द करती है, उससे अलग करने से वह जी नहीं सकती, उसी तरह काम करता हुआ या एकान्त में बैठा हुआ या बहुत लोगों में बैठा हुआ - किसी भी तरह रहे, यदि उसकी सुरत उसमें लगी रहती है, तो वह मछली की तरह है।
दीप और पतंग में ब्रह्मज्योति की उपमा है। नाद-कुरंग में शब्द अभ्यास का सहारा है।
मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टिसाधन और सुरत-शब्द-योग - सब कुछ सुमिरण के अंदर है।
इसलिए कबीर साहब ने कहा है -
जप तप संयम साधना, सब सुमिरन के माहिं।
कबीर जाने भक्तजन, सुमिरन सम कछु नाहिं।।
इसलिए सब किसी को इसकी तरकीब जानकर सुमिरण करना चाहिए।
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यह प्रवचन कटिहार जिलान्तर्गत श्रीसंतमत सत्संग मंदिर मनिहारी में दिनांक 16.2.1955 ईo को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
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श्री सद्गुरु महाराज की जय
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Jayguru
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