।।ॐ श्री सद्गुरवे नमः।।
अमृत को नेत्रों से पान करो
(साभार–सत्संग-सुधा सागर)
आप सब यहाँ सत्संग के लिए एकत्रित हैं।
सत्संग में बहुत तरह की बातें होती हैं।
ऐसा नहीं कि जो आध्यात्मिकता के खिलाफ बातें हैं, वे भी होती हैं।
मैं आपका ख्याल उधर ले जाना चाहता हूँ, जो आपने पहले सद्ग्रंथों के पाठ में सुना था।
मेरा यह कायदा और सहारा भी है कि संतों की वाणी का मैं आदर करूँ और उसके सहारे चलें। संतों की वाणी को ही मैं सत्संग कहूँगा।
जो मुझे जानते हैं, वे तो वैसे ही मुझे कहते होंगे कि संतों की वाणी का सहारा मुझे उतना ही है, जितना कि बिना वायु के श्वास कोई नहीं ले सकता।
मण्डल ब्राह्मणोपनिषद् में संसार को समुद्र कहा गया है। उसमें निद्रा-भय जीव-जन्तु हैं, ऐसा बतलाया गया है। समुद्र में बड़े-बड़े जीव होते हैं और जीव को जीव निगल जाते हैं। उसी प्रकार नींद है। उसके पेट में जो जाते हैं, उसकी सुधिबुद्धि सब खो जाती है।
भय भी उसी तरह है। भयातुर होकर अपनी शक्ति को लोग खो बैठते हैं। उसमें तृष्णा भँवर है, इसको पार करने के लिए सूक्ष्म मार्ग का अवलम्ब ग्रहण करें। जीव भँवर में चक्कर खाते हैं। ऐसे ही इच्छा की तरंग में पड़े हुए लोग सूक्ष्ममार्ग का अवलम्ब ग्रहण करें। सूक्ष्म का अर्थ है - महीन। सूक्ष्ममार्ग के लिए बतलाया गया कि उसके द्वारा किस तरह ब्रह्म का अवलोकन होता है। चन्द्र-बिम्ब अमृत को नेत्रों से पान करो।
उसके दर्शन के लिए तीन प्रकार की दृष्टियाँ चाहिए। अमादृष्टि, प्रतिपदादृष्टि और पूर्णिमादृष्टि। पूरी आँखें बंदकर देखना अमादृष्टि है। आधी आँखें खोलकर और आधी आँखें बंदकर देखना प्रतिपदादृष्टि है, जिसे शाम्भवी मुद्रा कहते हैं और पूरी आँखें खोलकर देखना पूर्णिमादृष्टि है, जिसे वैष्णवी मुद्रा कहते हैं।
इस तरह देखने से क्या होता है?
तो कहते हैं कि इससे वायु की स्थिरता होती है, मन की स्थिरता होती है।
क्या यह बात सत्य है?
उपनिषद् की बातों को झूठलावें, मेरी समझ से बाहर है।
दृष्टि वह चीज है, जहाँ पर यह ठीक से लगी रहती है, मन वहीं पर पड़ा रहता है। ऐसा नहीं होगा कि दृष्टि को एक जगह स्थिर किए हैं और मन दूसरी ओर भाग जाय।
यदि ठीक-ठीक देखते हैं तो मन वहीं रहता है। दृष्टि डीम-पुतली को नहीं कहते, देखने की शक्ति को कहते हैं। दृष्टि स्थूल है या सूक्ष्म? दृष्टि को हाथ से आप नहीं पकड़ सकते। आप मेरी ओर देखते हैं और मैं आपकी ओर देखता हूँ, तो दोनों की दृष्टि दोनों पर पड़ती है, किन्तु उसे देख नहीं सकते। इस प्रकार दृष्टि सूक्ष्म है और मन भी सूक्ष्म है।
सूक्ष्म को सूक्ष्म का सहारा मिलना अवश्य मानने योग्य है। इसलिए
दृष्टि से मन का स्थिर होना पूर्ण सम्भव है। दूष्टि और मन दोनों सूक्ष्म है, इसलिए उपनिषद् का यह वाक्य सत्य है, ऐसा विचार में जँचता है। बाकी रही बात वायु-स्थिरता की। तो आप देखिए,
किसी गम्भीर बात को सोचिए, तो मन इधर-उधर नहीं भागता। ऐसी अवस्था में श्वास-प्रश्वास की गति भी धीमी पड़ती है।
आप स्वयं आजमाकर देख सकते हैं।
मन की चञ्चलता में श्वास तेज होता है और मन की स्थिरता में श्वास की गति धीमी होती है।
याद रहे कि मैं प्राण और प्राणवायु दोनों को एक ही नहीं मानता। योगिवर भूपेन्द्रनाथ सान्यालजी ने कहा था - ‘जैसे दूध में घी रहता है, उसी प्रकार वायु में प्राण रहता है।
प्राणवायु वह है, जो वायु प्राण से सम्बन्धित हो।
उपनिषद् में जो बताया गया कि दृष्टि-साधन से मन और वायु की स्थिरता होती है, बिल्कुल ठीक है और जो कहा गया कि भवसागर से पार हो जाओगे, वह भी ठीक है। यदि कहा जाय कि मन और वायु की स्थिरता में ईश्वर की प्राप्ति कैसे होगी? तो देखिए,मन के सिमटाव से ऊर्ध्वगति होती है, ऊर्ध्वगति से मायिक तल का छेदन होता है। माया के तल से ऊपर जाने पर निर्मायिक का दर्शन होता है।
परमात्मा का दर्शन हमको इसलिए नहीं होता है कि हमने पहले जाना नहीं कि परमात्मा का दर्शन कैसे होता है। पहले जानो कि शब्द का ग्रहण कान से होता है।
रूप का दर्शन आँख से होता है। परमात्मा तो बहुत दूर है, पहले आप अपने को जानिए। कोई ऐसा नहीं कहता कि मैं नहीं हूँ। मैं हूँ - ऐसा सबको विश्वास है।
कहाँ हैं? तो कहेंगे - शरीर के अंदर हैं। शरीर के अंदर मनोवृत्ति के संग-संग हैं।
जिस प्रकार दूध के संग-संग घी रहता है, उसी तरह मन के संग-संग जीवात्मा रहता है।
एक आदमी है, जो चारचित लेटा पड़ा हुआ है। उसको उठकर कहीं जाना है, तो वह क्या करेगा? पहले हाथ-पैर समेटेगा, तब वह उठकर चलेगा। बिना हाथ-पैर समेटे चल नहीं सकता है। उसी प्रकार इन इन्द्रियों की सम्भाल जबतक नहीं होगी, तबतक परमात्म-दर्शन सम्भव नहीं। उसके लिए साधन बताया गया कि शाम्भवी मुद्रा का। अभ्यास करो। शाम्भवी मुद्रा तीन तरह की होती है। भगवान विष्णु को जहाँ देखिए, तो खुली आँखें, शिवजी को जहाँ ध्यानावस्थित देखिए, आधी आँखें खुली और आधी आँखें बन्द।
भगवान बुद्ध को देखिए, तो आँखें बन्द।
व्यासदेवजी भी आँख बन्द करके ध्यान करते थे, ऐसा चित्र मुझे मिला है।
हमारे गुरु महाराज कहते थे कि आँखें खोलकर देखोगे, तो तुमको आँखों में कष्ट होगा। पाल ब्रंटन ने एक पुस्तक लिखी है, उसमें उन्होंने लिखा कि एकटक लगाओ। एक साधु थे, जिनकी आँखों से पानी टपकता था। आपको पोथी-प्रमाण की आवश्यकता नहीं।
विचार से देखिए - जहाँ आपकी दृष्टि गड़ी रहेगी, मन वहीं रहेगा। मन सूक्ष्म है और दृष्टि भी सूक्ष्म है। इसलिए स्वजाति को स्वजाति से मदद मिलती है।
मैंने श्रीभूपेन्दनाथ सांन्यालजी से पूछा कि प्राणायाम करके ध्यान करना चाहिए अथवा ध्यान करके प्राणायाम करना चाहिए।
उन्होंने कहा - ‘प्राणायाम करके ध्यान करना चाहिए। मैंने कहा - 'श्रीगीताजी के छठे अध्याय में बैठने के लिए आसन और आसन के तरीके सब बतलाए हैं, किन्तु वहाँ प्राणायाम के लिए कोई जिक्र नहीं है।
जहाँ-जहाँ मन भाग जाय, वहाँ वहाँ से लौटाने कहा है। ध्यान से प्राणस्पन्दन बन्द हो जाय, तो यही प्राणायाम हो गया।
पहले दूध-मक्खन साथ-साथ रहते हैं। जहाँ दूध रहता है, मक्खन भी वहीं रहता है। फेफड़े में संकोचन-विकासन की क्रिया होती रहती है, किन्तु बाहर की वायु से नहीं, जीवनी शक्ति से। जीवनी शक्ति प्राण है। प्राण परमात्मा से उत्पन्न होता है और वायु आकाश से उपजती है। हाँ, हम जो बाहर से वायु खींचते हैं, वह प्राण से सम्बन्धित हो जाती है, इसलिए उसको प्राणवायु कहते हैं। यदि शाम्भवी मुद्रा से अभ्यास करें तो मन स्थिर हो जाता है। मन स्थिर हो जाता है तो प्राण भी स्थिर हो जाता है। दृष्टि का ऐसा प्रयोग है, जिससे मन स्थिर हो जाता है। स्थिरता में सिमटाव होता है।
सिमटाव से मायिक आवरणों का छेदन होता है। मायिक आवरणों के छेदने पर उधर परमात्मा ही बाकी रहते हैं। उसे परमात्मा का साक्षात्कार होता है।
अष्टांग योग में पहले यम, नियम और तब आसनसिद्धि के बाद प्राणायाम कहा, किन्तु प्राणायाम में ही समाप्त नहीं किया। प्राणायाम के बाद प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि भी कहा है। इसलिए पहले यम, नियम, आसनसिद्धि आदि और अन्त में समाधि होगी।
प्राणायाम से आपदा भी हो सकती है, किन्तु ध्यान से आपदा नहीं होती।
प्राणायाम से उन्माद भी होता है। ‘कल्याण' पत्र में ऐसा लेख भी निकला है। गुरु नानक, दादू दयाल, कबीर साहब, तुलसी साहब आदि संतों ने ध्यानयोग पर ही जोर दिया है। दृष्टिसाधन से आरम्भ करके अन्त तक का वर्णन किया।
प्राणायाम के बाद ध्यान-योग में जाना ही पड़ेगा, किन्तु ध्यान-योग से प्राणायाम में नहीं जाना होगा।
मन को ठीक-ठीक लगाओ, दृष्टि को ठीक-ठीक लगाओ, जैसा बताया गया है। अवश्य शांति मिलेगी।
मेरे कहने का तात्पर्य ऐसा नहीं कि प्राणायाम नहीं करो। जिनसे निबहता है, करें; किन्तु खतरे से - आपदा से बचते रहें। बिना प्रत्याहार के धारणा नहीं होगी। बिना धारणा के ध्यान नहीं होगा।
इसलिए पहले प्रत्याहार होगा। मन जहाँ जहाँ भागेगा, वहाँ-वहाँ से लौटा-लौटाकर फिर वही लगाया जाएगा, तो अल्प टिकाव अवश्य होगा। ‘रसरी आवत जात ते सिल पर पड़त निसान' यही धारणा होगी। फिर विशेष देर तक टिकते-टिकते ध्यान होगा और अन्त में समाधि होगी। केवल किसी एक पर जोर देना उचित नहीं।
लोग पूजा-पाठ, मूर्ति-ध्यान करते हैं, इसमें भी एकाग्रता होती है।
शरीर कपड़े की तरह बदलता है, किन्तु हम रहेंगे। हम पर जो संस्कार पड़ेगा, वह भी रहेगा।
भगवान ने कहा कि जहाँ-जहाँ मन भागे, वहाँ-वहाँ से लौटा-लौटाकर लाओ।
ऐसा संदेह नहीं करना चाहिए कि इधर साधना से गए और उधर सांसारिक भोग से भी। तो भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - कल्याणकारी कर्म करनेवालों की अधोगति नहीं होगी।
ऐसा वर्णन है।
उन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय में दृष्टिसाधन करने के लिए कहा -
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः।
संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्।।
अर्थात् काया, सिर और गले को समान एवं अचल करके और स्थिर होकर अपनी नासिका के आगे दृष्टि जमाकर, अन्य दिशाओं को न देखता हुआ देखे।
नासाग्र ध्यान में भी भेद है।
एक सेठ ने अपने गुप्त धन रखने का स्थान अपने बही-खाते में लिखकर रख दिया था कि अमुक महीने की अमुक तिथि के दिन, दोपहर के समय धन अमुक ताड़ गाछ की फुनगी पर रखा है। जब वह मर गया और उसके बेटे ने जब इसे पढ़ा, तो अति आश्चर्यित हुआ कि ताड़ वृक्ष तो अभी वर्तमान है, पर वहाँ तो धन है नहीं! और सोचा कि वहाँ धन रह भी सकता है कैसे?
उसके पिता के समय का एक वृद्ध मुनीम था।
जब लड़के ने इस विषय में उससे पूछा तब उस वृद्ध ने कहा - 'वह महीना, तिथि और वह समय आने दो, तो मैं बतला दूँगा।' जब वह समय आ गया, तब उस वृद्ध ने उस सेठ के पुत्र को उस स्थान पर ले जाकर ताड़ गाछ की फुनगी की छाया जहाँ पड़ती थी, वह स्थान बतला दिया और बोला कि इसी जगह में वह धन गड़ा है। सेठपुत्र ने कोड़कर अपना धन निकाल लिया।
संत धरनीदासजी ने कहा -
धरनी निर्मल नासिका, निरखो नैन के कोर।
सहजै चन्दा ऊगिहैं, भवन होइ उजियोर।।
निर्मल नासिका को समझो।
शाण्डिल्योपनिषद् में भी नासाग्र का जिक्र आया है।
विद्वान्समग्रीवशिरो नासाग्रदृग्भ्रूमध्ये।
शशभृद्बिम्बं पश्येन्नेत्राभ्याममृतं पिवेत्।।
विद्वान गला और सिर को सीधा करके नासिका के आगे दृष्टि रखते हुए, भुवों के बीच में चन्द्रमा के बिम्ब को देखते हुए नेत्रों से अमृत का पान करें।
कुछ लोगों का कहना है कि आज्ञाचक्र से नीचे पाँच चक्र हैं। इनमें से पहले नहीं गुजरकर आकाश में ही कैसे उड़ने लगेंगे? तो मैं कहूँगा कि दोनों आँखों से दृष्टि की धार निकलती है।
बिजली के गिरने से यदि कोई उसे देख लेता है, तो उसकी दृष्टिधार निकलते ही उसका शरीर भी छूट जाता है। दृष्टि शरीर का प्राण है।
अजगर की दृष्टि किसी आदमी की दृष्टि पर पड़े तो अजगर की दृष्टि से उसकी दृष्टि मिलने से वह व्यक्ति उस ओर खिंचता चला जाता है।
‘शिवसंहिता' में भगवान शिव ने एक-एक चक्र के साधन का तथा उनके गुणों का वर्णन किया है।
फिर आज्ञाचक्र के वर्णन में उन्होंने कहा है - पंच पद्मों का जो-जो फल (पंच चक्रों के ध्यान का जो-जो फल) होता है, सो समस्त फल आप ही इस आज्ञा कमल (आज्ञाचक्र) के ध्यान से प्राप्त हो जाएगा।
आपके दोनों हाथों को पकड़कर कोई खींचे, तो तमाम शरीर उसी ओर खींचा जाएगा।
उसी प्रकार दोनों दृष्टि की धारें जिधर खींची जाएँगी, संपूर्ण शरीर की धार उस ओर फिर जाएगी।
इसी का वर्णन गुरु नानक, कबीर साहब आदि संतों ने किया है। जिसका मन एक क्षण के लिए भी उस ओर लग जाएगा, तो वह एकाग्रता का सुख और कुछ-न-कुछ झलक अवश्य देखेगा। यही साधन निरापद है। करते जाओ, सुगम साधन है।
इसके साथ संयम करो।
बिना संयम किए न हठयोग चलेगा, न दृष्टियोग और न शब्दयोग। इसलिए
झूठ, चोरी, नशा, हिंसा, व्यभिचार मत करो।
यदि कभी भूल से भी हो जाय, तो परमात्मा से प्रार्थना करो कि हमसे अब ऐसा न होने पावे। अपनी शक्ति भी लगाओ कि ये अपकर्म आपसे न होने पावें, केवल कहो नहीं।
धन-सम्पत्ति के लिए जो बहुत दुष्कर्म करते हो, यह साथ जाने को नहीं है। साथ ही जब आपका शरीर छूट जाएगा और कहीं जन्म होगा, तब उस धन के लिए कहो कि मेरा धन है, तो आपको कौन दिला देगा? इसलिए धन-सम्पत्ति में आसक्ति मत बढ़ाओ। ध्यान करो।
ध्यान करने के लिए पहले किसी नाम का जप करो, फिर जिस नाम का जप करते हो, जिसमें श्रद्धा हो, उसी से संबंधित रूप का मानस ध्यान करो।
फिर –
कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्।।
- गीता, अध्याय 8/9
विन्दुध्यान करो। ध्यानविन्दूपनिषद् में आया है –
बीजाक्षरं परम विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम्।
सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परं पदम्।। - ध्यानविन्दूपनिषद्
विन्दु के बाद शब्द का - नाद का ध्यान करो।
‘न नाद सदृशो लयः।' पहले विन्दु का ध्यान करो, फिर नाद का। इस प्रकार लोग नित्य अभ्यास करते हुए आगे बढ़ सकते हैं। कोई पूछे कि ईश्वर क्या है, तो पूछो कि रूप क्या है? जो इन आँखों से देखा जाय। उसी तरह जो चेतन आत्मा से ग्रहण हो, वह ईश्वर या परमात्मा है। चेतन आत्मा को जड़ का संग छूटे, इसी के लिए दृष्टि-साधन और शब्द-साधन है।
दृष्टि-साधन करने की शक्ति प्राप्त करने के लिए मानस जप और मानस ध्यान है। इसके लिए ऐसा नहीं कि काम आज शुरू करो और आज ही खतम। भगवान बुद्ध ने 550 जन्मों में सिद्धि प्राप्त की थी।
भगवान कृष्ण ने भी अनेक जन्मों की बात कही है। यह सुनकर शिथिलता लाने की बात नहीं। धीरे-धीरे करते जाओ, एक-न-एक दिन काम अवश्य समाप्त होगा।
🙏🙏🙏श्री सद्गुरु महाराज की जय 🙏🙏🙏
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सोमवार, 22 नवंबर 2021
अमृत को नेत्रों से पान करो-सदगुरू महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज
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अंतर अजब बिलास-महर्षि हरिनंदन परमहंस जी महाराज
श्री सद्गुरवें नमः आचार्य श्री रचित पुस्तक "पूर्ण सुख का रहस्य" से लिया गया है।एक बार अवश्य पढ़ें 👇👇👇👇👇👇👇👇 : प...
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