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शनिवार, 12 अप्रैल 2025

अप्रैल 12, 2025

आनंद और मंगल की जड़ सत्संग हैं -संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज

बीसवीं सदी के महान संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का प्रवचन को पूरा देखें 👇🙏👇 🙏🕉️ *जय गुरूदेव* 🕉️🙏 आनन्द और मंगल की जड़ : सत्संग* *प्यारे आत्मवत् प्रिय लोगो!* मुझको बुलावा में कहा गया था कि मैं चलकर सत्संग का उद्घाटन करूँ। सत्संग मुझे बहुत प्रिय है, गोया जीवन का आधार है। इस आधार के लिए बुलावा हो, मैं उपस्थित नहीं होऊँ, तो मेरे लिए बहुत हानि, लज्जा, अपयश और अवनति का काम होगा, इसलिए आया। आते ही वेद-मंत्रों का पाठ होते पाया, तो मैं समझा- वेद-मंत्र से ही उद्घाटन होगा। फिर मुझे कुछ कहना चाहिए, सो कहता हूँ। आजकल आपके प्रान्त में और दूसरे प्रांतों में भी गोस्वामीजी की रामायण का बड़ा प्रचार है। उसमें लोग पढ़ते हैं, आप भी पढ़ते होंगे- सत्संगति मूद मंगल मूला। सोइ फल सिधि सब साधन फूला।। अर्थ बहुत सीधा है, तब भी थोड़ा-सा कहता हूँ कि गोस्वामीजी ने यह कह दिया कि मुद कहते हैं-खुशी को। आनन्द और मंगल, दोनों की जड़ सत्संग है। सत्संग आनन्द और शुभ की जड़ है। गोया सत्संग से ही आनन्द औैर शुभ होता है। ऐसा कोई नहीं, जो शुभ नहीं चाहे और आनन्द नहीं चाहे। आनन्द और शुभ की जड़ ही मिल जाए, तब तो कहना ही क्या है! जहाँ सत्संग होता है, वे वहाँ से आनन्द पाते हैं और उनका कल्याण होता है। यह बहुत बड़ी बात है कि उन्होंने कहा-सत्संग की सिद्धि फल है कि सब साधन फूल हैं। फूल हों, फल नहीं लगे तो, पूरी संतुष्टि नहीं हो सकती। सत्संग की सिद्धि फल है, इसको समझाने की कोशिश करूँगा। ‘सत’ कहते हैं, जिसमें परिवर्तन नहीं हो, जिसकी स्थिरता रहे और अत्यन्ताभाव नहीं हो। परिवर्तन=बदल जाना, जैसे हमलोगों को शरीर है। बच्चे लोग बैठे हैं, इसी तरह हमलोगों का शरीर था, सुन्दरता और शक्ति चली गयी, फिर भी शरीर वही है; इस तरह परिवर्तन होता है। शरीर मर भी जाता है। कितने शरीर मर भी गए। कहते हैं कि पाँच तत्त्व का था, पाँचो तत्त्वों में मिल गया, तब भी रहा। कहते हैं प्रलय होता है और महाप्रलय भी होता है। प्रलय में कुछ रहता है और महाप्रलय में अत्यन्ताभाव हो जाता है। अत्यन्ताभाव होगा, तब वह सत्य नहीं है। सत्य क्या है? परिवर्तन हानेवाले पदार्थों में एक जीवनी शक्ति है, जिसको ज्ञानमय कहते हैं। उसको इसलिए चेतन कहते हैं, वह चेतन इस शरीर के अन्दर अंतःकरण के साथ रहता है और ब्रह्मतत्त्व-आत्मतत्त्व से भिन्न कोई रह नहीं सकता। शरीर मर गया, उसको जलाया गया, लेकिन ब्रह्मतत्त्व जलाया नहीं गया। इसी के लिए कहा गया है कि इसको हवा सुखाती नहीं, पानी भिंगाता नहीं, अस्त्र छेदता नहीं, अग्नि जलाती नहीं आदि। यह सत्य रह गया, इसलिए इसको ईश्वर का अंश कहते हैं- ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुखरासी।। अपने यहाँ इसका बहुत विश्वास है कि शरीर को जलाया गया, चेतन आत्मा रही। यह अपने कर्मानुसार स्वर्ग-नरक भोगकर संसार में आती-जाती रहती है। शरीर के तरह इसका परिवर्तन नहीं होता। केवल आत्मा का कभी अभाव होता नहीं। कितने लोग चेतन और आत्मा को एक ही समझते हैं, लेकिन ऐसी बात नहीं। चेतन बदलता नहीं, लेकिन सृष्टि का पसार हुआ है, इसकी समाप्ति होगी, उस समय चेतन का भी विलीन हो जाना होगा। कभी-न-कभी अत्यन्ताभाव भी लोग मानते हैं, लेकिन आत्मा का अत्यन्ताभाव कभी होता नहीं। ‘सत्’ परा प्रकृति के नाम से, अक्षर के नाम से विख्यात है। नाशवान पदार्थ को क्षर पुरुष कहते हैं और अनाश को अक्षर पुरुष कहते हैं। इन दोनों से जो उत्तम है, वह पुरुषोत्तम है। गीता में इन तीनों का वर्णन है। पुरुषोत्तम में भी न परिवर्तन होता है, न अत्यन्ताभाव होता है। प्रलय, महाप्रलय में इसका कुछ बिगड़ता नहीं। अक्षर पुरुष, चेतन पुरुष, परा प्रकृति का कभी-न-कभी अत्यन्ताभाव होता है, लेकिन यह भी ‘सत्य’ है। और आत्मतत्त्व का कभी परिवर्तन नहीं होता, न अत्यन्ताभाव होता है, यह भी ‘सत्य’ है। उस सत् का इस सत् से मेल हो, यही है सत्संग का फल। चेतन आत्म-तत्त्व का अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त करो। शुद्ध आत्म-तत्त्व-ब्रह्मतत्त्व का प्रत्यक्ष ज्ञान हो, सत्संग की यही सिद्धि सत्संग करते-करते जड़-चेतन की भी गाँठ जाए; यह जड़ है, यह चेतन है-ठीक-ठीक पहचान में आ जाए और फिर आत्मतत्त्व का भी पहचान हो; यह सत्संग की सिद्धि है। लेकिन यह बाहर नहीं, अन्दर में होगा। और सब साधन फूल हैं, इसलिए कि संसार में यशस्वी होते हैं, यश की सुगन्धि फैलती है, वे संसार में प्रतिष्ठित होते हैं और यह है कि आत्मतत्त्व का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। इसके लिए ध्यान-भजन करना, ज्ञान अर्जन करना, योगाभ्यास करना, भक्ति करनी-ये सब साधन फूल हैं। जो इसको ग्रहण करते हैं तो संसार में सच्चरित्र होते हैं। उनकी सच्चरित्रता की बड़ाई है, वह तमाम होने लगती है। गोया यह है, यह बाहर की सिद्धि है। अंतर में साधन करते-करते जड़-चेतन और शुद्ध आत्मतत्त्व को-तीनों को अलग-अलग कर प्रत्यक्ष जानते हैं, यह फल है। जो बराबर सत्संग करते हैं, उनके लिए है- मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहि जतन जहाँ जेहि पाई।। सो जानब सत्संग प्रभाऊ। लोकहु बेद न आन उपाऊ।। बुद्धि, यश, मुक्ति, ऐश्वर्य और भलपन; जब कभी जहाँ कहीं, जिस किसी उपाय से जिसने पाया है, वह सत्संग के प्रभाव से हुआ, जानना चाहिए। लोक और वेद में इसके मिलने का उपाय नहीं। ये पाँच पदार्थ सत्संग करते-करते मिलते हैं। जिनको ये पाँच चीजें मिल जाएँ, संसार में उसको कुछ बाकी नहीं रह जाता है। वे स्वयं लाभान्वित होते हैं और संसार को लाभ पहुँचाते हैं। सत्संग ज्ञानमयी यज्ञ है। गीता में कहा गया है कि द्रव्यमय यज्ञ से ज्ञानमय यज्ञ श्रेष्ठ है। यहाँ भी होगा। ये शुभ के लिए करते हैं। सबसे बड़ा शुभ है-ईश्वर का प्रत्यक्ष ज्ञान होना। यह भी सभी प्राप्त कर लेंगे, जो सत्संग करते रहेंगे। कबीर साहब ने कहा- सत्संग से लागि रहो रे भाई । तेरी बनत बनत बन जाई ।। मैंने जो आन्तरिक सत्संग करने के लिए कहा है, वह बड़ा विस्तार है। वह ध्यान से होता है। स्थूल ध्यान को लोग जानते हैं, सूक्ष्म ध्यान कम लोग जानते हैं। सूक्ष्म ध्यान में भी रूप ध्यान और अरूप ध्यान है। जो कोई जानते हैं, वे करें; जो नहीं जानते हैं, जानकर करें। इन्हीं शब्दों के साथ मैं उद्घाटन करता हूँ, सबका कल्याण चाहता हूँ। *************** *यह प्रवचन बाँका जिलान्तर्गत गाँव पैर में दिनांक 8. 4. 1970 ई0 को अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।* *************** पूरा पढ़ें और दूसरों को भी शेयर जरुर करें।

मंगलवार, 25 फ़रवरी 2025

फ़रवरी 25, 2025

मेरे बिना तुम

तुम्हारी हंसी बता रही है कि तुम मेरे बिना खुश रह सकती है। मेरे सामने तुम जरूर ही नाखुशी का दिखावा करती है।। यह तो दुनिया का रीत ही है इसमें तुम क्या कर सकती है। मेरा क्या है हम तो परदेसी हैं इसमें तुम क्या कर सकती हैं।। मेरे बिना सबके सामने हंसना बोलना बहुत कुछ सिखाती है। मैं तुम्हारे जीवन में नहीं भी रहे जीवन खुशी से जी सकती है।। मुझसे बात बात में रोना पीछे में खुशी से जिंदगी जीना बताती है। सच तो यह है जिंदगी में इस तरह से जीना खूबसूरती कहलाती है।। कभी भी यह नहीं सोचना मेरे बिना मेरी जान खुश नहीं रह सकती है। यह दुनिया बड़ी है खुशी देने के लिए मेरे बिना भी खुशी-खुशी रह सकती है।। तरुण,तरुणी में रोना क्या खुशी से जिंदगी बितानी है। तनावमुक्त जीना ही असली जिंदगानी कहलाती है।।

सोमवार, 24 फ़रवरी 2025

फ़रवरी 24, 2025

बाहर में संत पथ नहीं -महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज

जय गुरु आज सभी सत्संगी बांधों के लिए मैं संत सतगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का अमृत वाणी को लेकर आया हूं और उसे आप पढ़ करके आध्यात्मिक उन्नति करेंगे इसलिए इस प्रवचन को जरूर पढ़ें। 🙏🕉️ *जय गुरुदेव* 🕉️🙏 बाहर में संत-पथ नहीं है, अन्दर में है-संत सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज *प्यारे लोगो!* आपलोग पढ़े-सुने होंगे- संत संग अपवर्ग कर, कामी भव कर पंथ । कहहिं संत कवि कोविद, श्रुति पुरान सदग्रंथ ।। संतों का रास्ता मोक्ष में जाने का है-मुक्ति में जाने का है। संतगण सांसारिक इच्छाओं को छोड़ दिए होते हैं। वे संसार में लसक (फँस) कर नहीं रह जाते। वे मोक्ष-मार्ग पर बिना अटक (रूक) के जाते हैं। परन्तु जो सांसारिक वस्तुओं में इच्छा रखते हैं, उनको मोक्ष-मार्ग में जाने में अटक रहता है। ‘जो जो करम कीउ लालच लगि, तिह तिह आपु बंधाइउ।’-नौवाँ गुरु तेग बहादुर का वचन है। जो-जो कर्मफल की इच्छा से किए, उन-उन कर्मों से अपने को बँधा लिया। जो सांसारिक इच्छाओं को नहीं त्याग सके, वे कर्म में फल इच्छा से लगे रहते हैं। उनको संत-पंथ पर जाने में अटक रहता है। धीरे-धीरे इच्छाएँ छूटती हैं। एक ही बार इच्छा नहीं छूटती। जबतक मन मण्डल से ऊपर चढ़ाई नहीं हो, तबतक इच्छा रहेगी ही। चाहे वह इच्छा सात्त्विकी ही क्यों न हो? इच्छा तीन प्रकार की होती है-तामसी, राजसी और सात्त्विकी। सात्त्विकी इच्छा ईश्वर की ओर ले जाती है। संसार में रहकर कुछ-न-कुछ इच्छा रहेगी। सात्त्विक कर्म का भी बन्धन होता है। इसलिए त्रय गुण से परे होने के लिए श्रीकृष्ण भगवान ने कहा था। त्रयगुण से परे तुरंत होना नहीं होता। क्रमशः तामस इच्छा को छोड़ते हैं, राजस को छोड़ते हैं और सात्त्विक में आते हैं। और अंत में इसको भी छोड़कर निस्त्रैगुण्य हो जाते हैं। संसार की वस्तुओं को त्यागने की इच्छा, फिर सात्त्विक इच्छा के त्यागने की इच्छा करो। उस इच्छा को भी छोड़ दो। इस तरह आगे बढ़ोगे। जबतक मन पर विजय नहीं है, तबतक इच्छा होती रहेगी। त्रयगुणातीत होने पर भी-संत होने पर भी, जबतक कोई संसार में रहेगा, संसार से सम्बन्ध रखेगा। संसार में रहकर संसार के सब कामों को छोड़कर रहे, असम्भव है। जैसे जाग्रत में काम करते हैं, उसके लिए इच्छा होती है। स्वप्न में भी इच्छा होती है, गहरी नींद में इच्छा नहीं होती, लेकिन हाथ-पैर का वा किसी अंग का संचालन गहरी नींद में होता है। किन्तु उस अवस्था में हाथ-पैर सिकोड़ने की इच्छा नहीं होती है। इसी तरह कर्म करके उसके फल की इच्छा संत लोग नहीं करते। उनसे राजस और तामस कर्म नहीं होगा, सात्त्विक कर्म होगा। जो मुमुक्षु हैं, उनको चाहिए कि इच्छा को रोकें, दमन करें। तामस इच्छा का त्याग करें। इसी तरह राजस कर्म का भी त्याग करें। सात्त्विक कर्म में बरतने पर भी सात्त्विकी इच्छा का त्याग करना चाहिए। यह पंथ-रास्ता कहने भर के लिए ही है कि ठीक है भी? रास्ता कहते हैं, र्चिं को-लकीर को। चाहे रास्ता चौड़ा हो वा चौड़ाई विहीन लम्बा हो। क्या है? वह लकीर है। इसी तरह जो मोक्ष का रास्ता है, वह लकीर है। लेकिन बहुत लम्बी लकीर है-चौड़ी लकीर नहीं है। रेखा के लिए पढ़े होंगे कि उसमें लम्बाई है, चौड़ाई नहीं। ठीक वैसा ही, जैसे विन्दु का स्थान है, परिमाण नहीं। लेकिन ऐसा विन्दु वा लकीर संसार में कोई देखा है? वह चश्मा जिसको पहनकर पतले-पतले अक्षरों को मोटे-मोटे रूप में देखता है, कितनी भी पतली लकीर खींचकर उस चश्मा से देखो, तो उसमें चौड़ाई मालूम होगी। संसार में ऐसी लकीर नहीं, जिसमें लम्बाई हो-चौड़ाई नहीं। ऐसी लकीर अन्दर का मार्ग है। मोक्ष में जाने का रास्ता लम्बा-ही-लम्बा है, चौड़ा नहीं। एक तो रास्ता बनाते हैं, चलने के लिए, दूसरा रास्ता चलते-चलते बनता है। जिस पर चला जाए, वह रास्ता है। संसार के रास्ते पर सवारी और पैर चलता है। मोक्ष के रास्ते पर न सवारी चलती है और न पैर चलता है, उसपर मन चलता है। संतों का ज्ञान अध्यात्म-ज्ञान छोड़कर नहीं रह सकता। अपने को समझो कि तुम कौन हो? तुम मन नहीं हो, शरीर नहीं हो। किन्तु कुछ ज्यादे पढ़े-लिखे लोग, जिनको आत्मा की स्थिति का ज्ञान नहीं होता, वे कहते हैं-‘शरीर ही शरीर है, शरीर बनने से ऐसा कुछ हो गया है।’ जिस विज्ञान से वे कुछ कहते-सुनते हैं, वह अध्यात्म से सम्बन्धित नहीं है। अध्यात्म-ज्ञान सिखाता है कि आत्मा अभिन्न है, अनात्मा भिन्न है। आत्मा और मन, इसको समझाने के लिए बहुत बात नहीं, थोड़ा कहना है। जैसे शरीर माया है, वैसे ही मन माया है। मन की बनावट माया से हुई है। इसका भी रहना नहीं होगा। शरीर के जीवन में मन और आत्मा का मिलाप है। ऐसा मिलाप कि जैसे दूध और घी का। दूध को देखो तो उसमें घी का पता नहीं। घी का काम दूध से नहीं होता और दूध का काम घी से नहीं होता। कोशिश करो तो दूध को मथकर घी अलग कर लोगे। तब जो काम घी से होगा, वह दूध से नहीं। यह प्रत्यक्ष देखोगे। दूध का छेना (पनीर) होगा, लेकिन घी का नहीं। उसी तरह मन और आत्मा के मेल से जो काम होता है, वह काम केवल मन या केवल आत्मा से होने योग्य नहीं है। मन और आत्मा का मिलाप है। बिना मन के हम काम नहीं करते। कहीं चलने के लिए, कुछ बोलने के लिए मन प्रेरण करता है। पहले मन चलेगा, पैर नहीं। संत कबीर साहब ने कहा है- बिन पाँवन की राह है, बिन बस्ती का देश । बिना पिण्ड का पुरुष है, कहै कबीर सन्देश ।। कहाँ से चलेगा? रास्ता शुरू कहाँ से होगा? जो जहाँ बैठा रहता है, वहीं से चलता है। यह मन कहाँ बैठा हुआ है? इस तन में मन कहँ बसै,निकसि जाय केहि ठौर । गुरु गम है तो परखि ले, नातर कर गुरु और ।। नैनों माहीं मन बसै, निकसि जाय नौ ठौर । गुरु गम भेद बताइया, सब संतन सिरमौर ।। -कबीर साहब जानिले जानिले सत्त पहचानिले, सुरति साँची बसै दीद दाना। खोलो कपाट यह बाट सहजै मिलै, पलक परवीन दिव दृष्टि ताना।। ‘दीद’ कहते हैं आँख को और ‘दाना’ कहते हैं तिल को। कैसे रास्ता पकड़ोगे? तो कहा-‘खोलो कपाट यह बाट सहजै मिलै।’ जाग्रत में आँख में, स्वप्न में कण्ठ में, सुषुप्ति में हृदय में और तुरीय में मूर्द्धा में वासा होता है। मोक्षमार्ग पर चलने के लिए जाग्रत अवस्था से चलना होगा। बाहर में संत-पंथ नहीं है, अन्दर में है। इसी पर मन चलता है। जो कोई यहाँ से चलना बताता है, ठीक बताता है, यह आज्ञाचक्र है। कोई कहे कि नीचे से क्यों नहीं चलो? तो नीचे से हठयोगी चलते हैं। नीचे में वे स्थान मानते हैं, जिसको मूलाधार चक्र कहते हैं, वे वहीं से आगे बढ़ते हैं। कोई कहते हैं कि पैर में भी तुम हो, वहीं से क्यों नहीं चलते? तो पैर से चलने के लिए कोई नहीं बताते। कोई मूलाधार से, कोई हृदय से और कोई आज्ञाचक्र से चलना बताते हैं। हृदय से चलनेवाले को मूलाधार से चलनेवाला कहता है कि मूलाधार से क्यों नहीं चलते? हृदय से चलनेवाला अन्य दूसरों से कहता है कि हृदय से क्यों नहीं चलते? आज्ञाचक्र से चलनेवाला कहता है कि जिस कर्म से तुम अपने को समेटोगे, वह कर्म हमारे पास भी है। क्या मूलाधार और क्या हृदय, सबसे समेटकर हम आज्ञाचक्र से चलते हैं। शिवजी ने कहा है कि ‘पंच पद्मों का जो-जो फल पहले कहा, सो समस्त फल आपही इस आज्ञा कमल के ध्यान से प्राप्त हो जाएगा।’ यानि यानि हि प्रोक्तानि पंच पद्मे फलानि वै । तानि सर्वानि सुतरामेतज्ज्ञानाद्भवन्ति हि ।। -शिव-संहिता संतों ने यहीं से अन्तर का रास्ता बताया है। रास्ता ज्योति का है और शब्द का है। *************** *यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट में दिनांक 3. 9. 1967 ई0 को साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर हुआ था।* ***************

रविवार, 16 फ़रवरी 2025

फ़रवरी 16, 2025

प्यार तो प्यार होता है।

इस कविता में आपको सभी तरह के पहलू नजर आयेंगे एक बार जरूर पढ़ें 👇 प्यार तो प्यार होता है कुछ दिनों का बुखार होता है। नया नया खूब अच्छा लगता है बात बात में दिवस रैन बीतता है। क्या खाया,क्या पीया हर लब्ज होता है। बिना हाल चाल पूछे कोई नहीं बात होता है। इस कदर डूबा होता है। दुनिया से बेखबर होता है। मैसेज,फोन का इंतजार होता है मिलने को जिया बेकरार होता है। नववर्ष पर नया नया उपहार होता है। साथ में सेल्फी लेने का इंतजार होता है। जब हो जाये छह महीने साल। आने लगता दुनिया का ख्याल। कम हो जाता पूछ्ना हाल-चाल एक दुसरे पर उठाने लगता सवाल। बस इतना ही दिन का होता प्यार होश आने पर उतर जाता बुखार। सच ही कहा प्यार तो प्यार होता है। लेकिन कुछ दिनों का यार होता है।। कवि-तरुण यादव रघुनियां

शनिवार, 25 जनवरी 2025

जनवरी 25, 2025

मस्तिष्क को ताजा बनाने के लिए सत्संग -संत सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज

जयगुरु 🙏 सभी सज्जन वृंद से प्रार्थना है कि प्रवचन को पूरा पढ़ें आपके लिए संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का प्रवचन को लेकर हाजिर हूं। 🙏🕉️ जय गुरूदेव 🕉️🙏 मस्तिष्क को ताजा बनाने के लिए सत्संग-संत सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज प्यारे लोगो! जिस क्षेत्र में हमलोग सत्संग कर रहे हैं, वह बड़े महत्त्व का है। यहाँ भगवान बुद्ध बहुत सत्संग किया करते थे। यहाँ निकट ही वेणुवन में भगवान बुद्ध सत्संग कराया करते थे। यहाँ और भी पहाड़ पर उनका स्थान है। यह पुण्यभूमि है। आपलोग जो सत्संग-प्रेमी हैं, घर के कामों को छोड़कर, विहार के इस कठिन महँगाई के समय में भी खर्च करके यहाँ आए हैं। यह देखकर मेरे चित्त को बहुत ही प्रसन्नता होती है। हमलोग क्यों आए? इसलिए कि जहाँ ढाई हजार वर्ष पूर्व भगवान बुद्ध सत्संग करते थे, वहाँ सत्संग करें। सत्संग से हम क्या सीखते हैं? बच्चे खेल खेलने में-खिलौने में खुश होते हैं। वे कुछ वर्ष खुश रहते है। उनको समझाया-बुझाया जाता है, अभिभावक की ओर से उनको भय दिखाया जाता है, दबाव डाला जाता है और विद्याभ्यास में लगाया जाता है। जैसे- जैसे वे विद्याभ्यास में बढ़ते हैं, वैसे-वैसे उनके ज्ञान का विकास होता है। वे समझते हैं कि बचपन का खेल भले ही छूट गया। वह सदा का सुखदायक नहीं था। पढ़-लिख लेने के बाद कर्तव्य और अकर्तव्य को समझने लगते हैं तथा उचित विचार कर उचित कर्म को करते हैं। ऐसे ही वे चलते हैं। यहाँ ऐसे बच्चे हैं, जो देखते हैं कि केवल संसार के ही काम हैं। जो संसार के आगे का ख्याल नहीं रखते, वे भी बच्चे हैं। मैं कहूँगा, जिनको जीवन के बाद का ख्याल नहीं है, चाहे वे कितनी अधिक उम्र के हो गए हों, फिर भी वे बच्चे हैं, चाहे वे मेरी उम्र (83 वर्ष) के हों वा मेरी उम्र से अधिक के हों। विद्या से अनुचित और अनीति को समझते हैं, फिर भी उन्हीं में चलते हैं। किन्तु सत्संग से ज्ञान सीखकर जो संसार के बाद को भी सोचते हैं, उनको पता लगता है कि यह शरीर छोड़कर जाना है। लेकिन पता नहीं, कहाँ जाना है। जाना जरूर है। कहाँ जाना है? पता नहीं। रास्ता मालूम नहीं, स्थान मालूम नहीं, कितनी चिन्ता की बात है? इस बात को जो चेतते हैं, वे ही सयाने होते हैं। वे ही बालपन के खेल को छोड़ते हैं। इन्हीं बातों को समझाने के लिए संत लोग संसार में विचरते हैं। संतों ने संसार के खेल को देखा और कहा कि इसको छोड़ देना अच्छा है। एक बात तो यह है कि संसार के कामों से उपराम होना और दूसरी बात यह है कि संसार के कामों में लगे रहने पर भी संसार से उपरामता रहे। संसार के कामों में त्रुटि नहीं होने देकर उसमें उपरामता रहे, यह उत्तम है। जो संसार के कामों को छोड़कर रहते हैं, वे भी संसार के कामों और प्रबन्धों को छोड़कर नहीं रह सकते। मनुष्य को समझ में आवे कि रास्ता क्या है? जाना कहाँ है? सबसे उत्तम स्थान कहाँ है? यह भी संसार का ही काम है। और कामों से मन को हटा लिया जा सकता है, लेकिन इससे हटा नहीं सकते। बड़े-बड़े संतों, महात्माओं को ऐसा ही देखा गया। वे लड़ाई के मैदान में नहीं गए, खेती करने नहीं गए, नौकरी नहीं की, लेकिन यह काम अपने ऊपर ले लिया कि ‘चलना है रहना नहीं, चलना बिस्वाबीस।’ यह ख्याल देते रहे। चलना किस रास्ते से है। कहाँ जाना है? इस बात को समझाते हैं। यह समझाना निर्वाण में जाकर नहीं होता, संसार में रहकर ही करते हैं। दूसरे वे हैं, जो संसार के कामों को करते हुए अपने चेतते हैं और दूसरों को चेताते हैं, जैसे भगवान श्रीकृष्ण। भगवान बुद्ध संन्यासी हुए, औरों को भी उन्होंने संन्यासी बनाया। भगवान बुद्ध के समय में जितने संन्यासी हुए उतने किन्हीं के समय में नहीं। केवल संन्यासी ही नहीं बनाए, राजा और सेनापति भी उनके शिष्य थे। उनको उन्होंने संन्यासी नहीं बना लिया, उस तरह की शिक्षा दी। ‘कर ते कर्म करो विधि नाना। सुरत राख जहँ कृपानिधाना।। युद्ध भी करो और स्मरण भी करो। ‘तन काम में मन राम में।’ ‘करम करै करता नहीं, दास कहावै सोय।’ -कबीर साहब कर्म करते थे। उन्होंने अपने जीवन- यापन के लिए किसी दूसरे पर भार नहीं दिया। ‘थोड़ा बनिज बहुत ह्नै बाढ़ी उपजन लागे लाल मई।’ संतोष उनको बहुत था। थोड़ा-सा काम करते थे, अपना जीवन-यापन जिससे हो। मतलब यह कि जो संन्यासी हो जाते हैं, उनका कर्तव्य हो जाता है कि वे संसार के पार को बतावें। संसार में सदा रहना नहीं है। समर्थ रामदास ऐसे थे कि वे शिवाजी राव को चलाते थे। राजा को भी अपनी राय देते थे। शिवाजी ने कहा कि मैं तप करूँगा। समर्थ ने कहा- मैं तुम्हारा तप करता हूँ, तुम तलवार लो। गुरु गोविन्द सिंहजी महाराज ने दोनों काम करके दिखाया-भजन भी, तलवार भी। गुरु गोविन्द सिंहजी महाराज कभी अनीति में नहीं गुजरे। बेटे मर गए, लेकिन उन्होंने शोक नहीं किया। उन्होंने समय को देखा। संसार में युद्ध-ही-युद्ध होता है। वेद के उपदेश से यही मालूम हुआ कि इन्द्रिय का सुख, सुख नहीं है। संसार के पदार्थों में सुख नहीं, ईश्वर-भजन में सुख है। भगवान बुद्ध के वचन का धम्मपद ग्रन्थ से पाठ हुआ, उसमें भी यही आया, ‘ईश्वर-भजन करो’-ऐसा तो उसमें नहीं आया, लेकिन यह आया कि संसार के सुखों में आसक्त मत होओ। तब क्या करो? संसार के सुख में नहीं फँसकर, शरीर-सुख से जो विशेष सुख है, उस ओर चलो। निर्वाण की ओर चलो। यह संसार जो दीप-टेम के समान जलता है, सदा के लिए बुझ जाए, उधर चलो। हमलोग इन्हीं बातों को याद दिलाने और जो नहीं सुने हैं, उनको सुनाने के लिए यह सत्संग करते हैं। जिनको सत्संग का चसका लग जाता है, वे दूर-दूर से आते हैं। उनके मस्तिष्क को ताजा बनाने के लिए सत्संग होता है। सुनकर लोग विद्वान होते हैं। भगवान बुद्ध ने जो वचन कहे थे, लोगों ने सुने, याद रखे। लिखे तो पीछे गए। उपनिषद् के पाठ में आया कि भवसागर को पार करने के लिए सूक्ष्म मार्ग का अवलम्बन करो। स्थूल रास्ते पर चलकर संसार भर ही रहोगे, बाहर नहीं जा सकते। संसार का मार्ग तो यह है कि यहाँ से कलकत्ता जाओ और कलकत्ता से यहाँ आओ। यह स्थूल मार्ग है। दूसरा मार्ग है कि शरीर छूटने के बाद-संसार से जाने के बाद आराम से रहना हो। इसके लिए जो उत्तम-उत्तम कर्म हैं, स्थूल दर्जे के ही हैं। फिर भी उत्तम हैं, उनको करो। सूक्ष्म मार्ग बहुत उत्तम है। ‘लखे रे कोई बिरला पद निर्वाण।’ यह बाहर में नहीं है, भीतर का रास्ता है। उसपर पैर से चला नहीं जाता। सूक्ष्म अवलम्ब लेकर चलना होता है। ‘बिन पावन की राह है, बिन बस्ती का देश। बिना पिण्ड का पुरुष है, कहै कबीर सन्देश।।’ इस सत्संग से ये ही सब बातें बतायी जाएँगी। मैं धीरे-धीरे बतलाऊँगा कि सूक्ष्म मार्ग कहाँ है, उसका आरम्भ कहाँ से है और अंत कहाँ है? मैं विश्वास दिलाता हूँ कि मैं बतलाऊँगा कि जहाँ से आपको फिर लौटकर इस संसार में आना नहीं होगा। *************** *यह प्रवचन नालन्दा जिलान्तर्गत भगवान महावीर और भगवान बुद्ध के विहार स्थल राजगीर में 58वाँ अखिल भारतीय संतमत सत्संग का विशेषाधिवेशन दिनांक 28. 10. 1966 ई0 के प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।* *************** अगर आप प्रवचन को पूरा पढ लिये है तो शेयर जरुर करें।

शनिवार, 11 जनवरी 2025

जनवरी 11, 2025

मन में बहुत प्रकार के संस्कार भरे पड़े हैं -संत सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज

मैं तरुण कुमार मधेपुरा आप सभी के लिए संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दिव्य प्रवचन को लेकर आया हूं।आप अगर पूरा पढ़ते हैं तो आपका आध्यात्मिक उन्नति कीओर मन को जरूर प्रेरणा मिलेंगे। 🙏🕉️जय गुरूदेव 🕉️🙏 मन में बहुत प्रकार के संस्कार भरे पड़े हैं-संत सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज प्यारे लोगो ! पूर्व की बात हमलोगों को स्मरण नहीं है, परंतु सद्ग्रन्थों से विदित होता है कि हमारे बहुत से जन्म हुए हैं। कितने जन्म हुए, यह संख्या में बतलाने योग्य नहीं है। किसी भी संख्या-करोड़, अरब बताने योग्य नहीं है; क्योंकि यह पृथ्वी, यह सूर्य, यह चन्द्र-सब बहुत पुराने हैं। इनकी रचना कब हुई, कोई ठीक-ठीक नहीं बता सकता। आज के लोग कुछ बताते हैं, लेकिन यह निश्चित नहीं है। हमलोग चार युगों की बात सुनते हैं। चार युग एक बार समाप्त होने पर एक चौकड़ी होती है। फिर कल्प और महाकल्प होते हैं। यह पुरानों के अनुकूल है। सृष्टि हुई है, लेकिन कब हुई है, कोई बता नहीं सकता। जबसे सृष्टि हुई है, तब से जीव-जन्तु हैं। हमलोगों के भी कितने जन्म हुए, ठिकाना नहीं। अन्दाज करके मालूम होता है कि हमारे बहुत जीवन गुजरें हैं; क्यांकि हमारे मन में बहुत संस्कार हैं। इस जन्म में कितने प्रकार के संस्कार में हम बरतते हैं-यह भी अन्दाज से बाहर है। फिर भी भिन्न-भिन्न लोग भिन्न-भिन्न संस्कार के देखे जाते हैं। जब लोग कुछ सयाने होते हैं और उनके संस्कार उदित होते हैं, तो इसी जन्म के सभी संस्कार हैं, कहा नहीं जाता। जो संस्कार इस जन्म में नहीं हुआ, उसके भी कर्म देखे जाते हैं। हमारे मन में बहुत प्रकार के ंसंस्कार भरे पड़े हैं। इसीलिए हमारे बहुत जन्म हुए। हमारे अन्दर जितने संस्कार उदित हुए, वे सब संस्कार सुख के लिए ही। सुख की खोज में पड़े, उसी के अन्दर दौड़े। जो ज्ञानवान हैं, उनके अन्दर में ज्ञान का उदय होता रहता है। यह ज्ञान का संस्कार पहले से ही है। कहा जाता है कि इस ज्ञान के पक्ष में बहुत जन्मों से रहे। शंकाराचार्य, भगवान बुद्ध बड़े-बड़े महात्मा हुए हैं। कबीर साहब, गुरु नानक साहब-ये सब ऐसे हुए कि बचपन से ही ज्ञान के पक्ष में चले। इसलिए कहना पड़ता है कि कई जन्मों से इनके अन्दर ज्ञान चला आता था, जो इस जन्म में उदित हुआ। साधारण मनुष्य विषय-भोग का संस्कार लेकर आते हैं और बचपन से उधर ही लगते हैं। वसन्त पंचमी में साल में एक बार हल की पूजा होती है। राजा लोग भी हल पकड़ लिया करते थे। सीताजी हल की पूजा के दिन ही निकली थीं, जबकि जनकजी हल जोत रहे थे। इसीलिए श्री जानकी जी को भूमिजा भी कहते हैं। जनकजी के हल की नोक लगने से घड़े से सीताजी निकली थीं। ढाई हजार वर्ष से कुछ पहले भगवान बुद्ध का जन्म हुआ। राजा शुद्धोधन हल जोतने गए थे। उस दिन बड़ा उत्सव था। भगवान बुद्ध को भी लेकर दाई वहाँ गई थी। दाई खेमे से बाहर निकली और फिर भीतर गई तो भगवान बुद्ध को ध्यानावस्थित उसने देखा और लोगों को भी दिखाया। ऐसा क्यों हुआ? बहुत से जन्मों से वे ध्यान करते चले आते थे। हम साधारण मनुष्य विषय-भोग का संस्कार लेकर आते हैं। इसलिए उस ओर बचपन से ही जाते हैं। कितने कुछ ज्ञान-चिन्तन और कुछ विषय- चिन्तन करते हैं। कितने बिल्कुल विषय-चिन्तन ही करते हैं, ज्ञान-चिन्तन नहीं। कितने में ज्ञान-चिन्तन की मात्रा अधिक और विषय-चिन्तन की मात्रा कम रहती है। अनेक जन्मों से लेकर आज भी हम सुख की ओर दौड़ते हैं। कितने विषय-सुख की ओर से धक्का खाकर फिर उसी ओर जाते हैं। कितने उस सुख की ओर से धक्का खाकर ज्ञान की ओर जाते हैं, विषयसुख की ओर से उनकी आसक्ति हटती है। आज के और पहले के संतों के ज्ञान से जानने में आता है कि विषय में सुख नहीं है। विषय पाँच हैं-रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द। इन पाँचों से फाजिल को कोई जानता नहीं है। इनसे अधिक संसार में कुछ है भी नहीं। इन विषयों में दौड़ते-दौड़ते थकते हैं, दुःख पाते हैं, फिर भी उधर ही दौड़ते हैं। साधु-सन्त कहते हैं और जिन्होंने अच्छा भजन किया है, वे भी कहते हैं कि बाहर विषय-सुख में मत दौड़ो। यहाँ कहाँ सुख है? सुख तुम्हारे अंदर है। उस ओर जाओ। विषय-सुख भोगते हुए मन सन्तुष्ट नहीं होता, अधिक चंचल होता है और इसी में दुःख होता है। मन बाहर-बाहर दौड़ता है, तो अन्दर प्रविष्ट नहीं होता है। संतों ने बताया कि बाहर विषयों से सन्तुष्ट तुम नहीं होओगे। इसे संतोष करो। सुख अन्दर में है। उधर चलो। तन्द्रा में अन्दर में रहते हो, तब कोई बाहर का विषय नहीं रहता, फिर भी तुम सुखी रहते हो, चैन मालूम होता है। तन्द्रा से कोई छूटता है, तो उसको दुःख लगता है। चैन तुम्हारे अन्दर है। मुख में मिसरी का टुकड़ा रहे और सो जाओ, तो उसकी मिठास तुमको मालूम नहीं होती। यदि स्वप्न में देखो कि नीम का पत्ता खा रहा हूँ तो नीम का स्वाद कड़ ूवा मालूम पड़ेगा, मिसरी की मिठास का स्वाद नहीं। चेतन भीतर में था, इसीलिए भीतर का ज्ञान होता था, बाहर का नहीं। अन्दर में सुख है। इसलिए अन्दर में चलो। अन्दर में कहाँ तक जा सकते हो? संतों ने और साधकों ने कहा कि अन्दर में चला जाता है। जब तुम स्वप्न, सुषुप्ति और जाग्रत में नहीं रहते, तब तुरीय अवस्था में चलते हुए अन्दर का सुख पा सकते हो। जैसे-जैसे आगे बढ़ो, वैसे-वैसे अधिक सुख मिलता जाएगा। जहाँ चौथी अवस्था समाप्त हो जाएगी, वहाँ चलना भी समाप्त हो जाएगा। पहाड़ का अन्त उनकी चोटी पर होता है, इसी तरह तुरीय अवस्था का भी शिखर है। इसके शिखर पर चढ़ो, तो उसके आगे में क्या है, सो भी जानोगे। पहाड़ की चोटी पर रहने पर पहाड़ तुम्हारे पैर के नीचे रहेगा, ऊपर में पहाड़ नहीं रहेगा। इसी तरह चौथी अवस्था के ऊपर जाने पर फिर जाने के लिए स्थान नहीं रहता। इसी को गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-‘देश काल तहँ नाहीं।’ जहाँ स्थान है, वहाँ समय है, और जहाँ समय है, वहाँ स्थान है। देश हो, काल नहीं; काल हो, देश नहीं-ऐसा हो नहीं सकता। इसको संतों ने विविध प्रकार से बतलाया है। संत दादूदयालजी महाराज ने कहा- अविगत अंत अंत अंतर पट, अगम अगाध अगोई । सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा, अगुन सगुन नहिं दोई ।। वहाँ पहुँचने पर ही पता मिलता है कि यह ईश्वर है। वहाँ ईश्वर का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है, यहाँ केवल विचार में ही। वे परमात्मा इन्द्रियज्ञान से परे हैं; मन, इन्द्रियों से परे हैं। मन इन्द्रियों से ऊपर उठकर ईश्वर को पा सकते हो। ईश्वर पाने के लिए अन्दर जाने का रास्ता संतों ने बताया। संत कबीर साहब कहते हैं- उलटि पाछिलो पैंड़ो पकड़ो पसरा मन बटोर । पसरे हुए मन को समेटो। जप से मन का सिमटाव होता है। जप से अधिक सिमटाव मानस ध्यान में होता है। पूरा सिमटाव एकविन्दुता में होता है। विन्दु में फैलाव नहीं है। इसीलिए विन्दु ध्यान की बड़ी महिमा है। हाथ-पैरवाला ईश्वर को जानेगा तो बड़ी मोटी बात है। शिवलिंग में, शालिग्राम में हाथ, पैर नहीं है। फिर ईश्वर क्यों मानते हो? इसका मतलब यह है कि केवल हाथ-पैरवाला ईश्वर होता है-ऐसा मत समझो। ऐसा सिमटाव हो कि एकविन्दुता प्राप्त हो जाए। जितने चित्र बनते हैं, विन्दुओं से। लकीर बनती है, विन्दुओं से। तेजो विन्दुः परं ध्यानं विश्वात्म हृदि संस्थितम् । अर्थात् हृदय स्थित विश्वात्म तेजस्वरूप विन्दु का ध्यान परम ध्यान है। उपनिषत्कार ने लिखा है। सबके अन्दर-अन्दर हृदय में यह विन्दु मौजूद है। ‘हृदय’ शब्द छाती के लिए नहीं, योगी लोग छठे चक्र को योगहृदय कहते हैं। यहाँ तक रूप है। संसार में रूप के बाद अरूप है। रूप स्थूल है और अरूप सूक्ष्म है। अरूप को प्राप्त करने के लिए अरूप अवलम्ब लो। अरूप अवलम्ब शब्द है। सबके अंदर शब्द गूंज रहा है। साधन करने वाला जानता है। इस शब्द का उद्गम परमात्मा है। जहाँ से यह शब्द उत्पन्न हुआ, वह परमात्मा है। कुछ बनाने में कम्प होता है। परमात्मा की मौज हुई सृष्टि बनाने में , उसमें शब्द हुआ। वह शब्द सृष्टि के अणु-अणु में प्रविष्ट है। शब्द-साधना करके जो परम पद को पाता है, वह वहाँ पहुँचता है, जहाँ से शब्द की उत्पत्ति हुई है। जहाँ से शब्द उत्पन्न हुआ, वहाँ शब्द की समाप्ति भी होती है। इसीलिए उपनिषत्कार ने कहा-‘निःशब्दं परमं पदम्।’ संतों ने कहा कि सुख खोजते हो, तो यहाँ (निःशब्दं परमं पदम् में) सुख मिलेगा। इसके लिए अनेक पीढ़ियों के संस्कार की, इन्द्रिय-निग्रह की, दीर्घोद्योग की तथा ध्यान और उपासना की सहायता अत्यन्त आवश्यक है। (देखें-लोकमान्य बालगंगाधर तिलक कृत ‘गीता रहस्य’ पृष्ठ 247) असली सुख अन्दर में मिलेगा, बाहर में नहीं। इसके लिए घर छोड़ने की जरूरत नहीं है। घर में रहो, काम करो और गुरु के बताए अनुकूल त्रैकालिक सन्ध्या अवश्य करो। रात में सोते समय भी कुछ करके सोओ। त्रैकालिक सन्ध्या अवश्य करो। सोना क्या है? गहरी नींद में जाना एक प्रकार से मरना है। मरने के पहले राम-राम कहो। इसलिए सोने के पहले कुछ जप-ध्यान करके सोओ। संसार के कामों को करते हुए भी ध्यान करो। ध्यान करते रहने से महा-से-महा संकट में भी कल्याण होगा। द *************** *यह प्रवचन बिहार राज्यार्न्तगत भागलपुर नगर के श्रीगंगातट-स्थित महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट में दिनांक 24. 4. 1966 ई0 के सत्संग में हुआ था।* *************** पूरा पढ़ने के लिए आपको बहुत बहुत साधुवाद!एक बात शेयर जरुर करें 🙏

गुरुवार, 9 जनवरी 2025

जनवरी 09, 2025

बाहर फिरत विकल भय धायो-संत सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज

मैं तरुण कुमार आपके लिए आराध्य देव का प्रवचन को लेकर हाजिर हूं।एक बार पूरा प्रवचन को जरूर पढ़ें 🙏🕉️ जय गुरूदेव 🕉️🙏 बाहर फिरत विकल भय धायो-संत सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज *धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!* इस समय के सत्संग में मैं ईश्वर-भक्ति के विषय में बोलूँगा। भक्ति के विषय में जो आप पहले से जानते हैं, हो सकता है मैं आपके अनुकूल कहूँ। अथवा उसके अतिरिक्त दूसरी तरह भी कह सकूँ। भक्ति की जानकारी के लिए पहले समझना चाहिए कि ईश्वर स्वरूपतः क्या है? इन्दियज्ञान से ईश्वर दूर है। चेतन आत्मा से ही जो पहचान में आवे, वही ईश्वर है। इन्द्रियों के ज्ञान में ईश्वर- स्वरूप का ज्ञान नहीं हो सकता; क्यांकि इन्द्रियज्ञान में जो आता है, सो माया है। माया उसको कहते हैं, जिसकी बदली होती है, जिसका विनाश होता है और जो असत्य है। ईश्वर की बदली नहीं, ईश्वर का विनाश नहीं। माया जड़ है। ईश्वर चेतन को भी चेतन करनेवाला परम चेतन है। केवल चेतन आत्मा से ईश्वर का दर्शन होगा। बाहर में कहीं भी ईश्वर का दर्शन नहीं होगा, क्योंकि बाहर में इन्द्रियों से ही काम होता है। जो इन्द्रियज्ञान में नहीं है, उसको इन्द्रियों से पावेंगे, ऐसी आशा दुराशा मात्र है। ईश्वर का दर्शन बाहर में मानते हैं, तो ज्ञान के खिलाफ होता है और उसकी सत्यता सिद्ध नहीं होगी। बाहर में ईश्वर का दर्शन नहीं होता। यह विचार देकर संतों ने कहा है-ईश्वर को अपने अन्दर खोजो। (गो0 तुलसीदासजी महाराज) जिनका सात काण्ड रामायण है। विनय-पत्रिका में लिखते हैं- एहि तें मैं हरि ज्ञान गँवायो । परिहरि हृदय कमल रघुनाथहिं,बाहर फिरत विकल भय धायो ।। अर्थात् बाहर में खोजते रहे, तो विकल होते रहे, हैरान होते रहे। कुछ लोग गोस्वामी तुलसीदासजी की जीवनी में लिखते हैं कि उनको बाहर में भी ईश्वर का दर्शन हुआ था। श्रीराम का दर्शन हुआ था। हनुमानजी से तुलसीदासजी ने प्रार्थना की कि मुझे राम के दर्शन कराइए। चित्रकूट में तब वे रहते थे। एक दिन वे चन्दन घिस रहे थे। उन्होंने देखा कि दो सुकुमार बालक आए हैं और चन्दन लगाने के लिए कह रहे हैं, तुलसीदासजी ने उन दोनों को तिलक लगा दिए, किन्तु वे पहचान न सके कि ये ही श्रीराम और लक्ष्मण हैंं। पुनः हनुमानजी से भेंट होने पर तुलसीदासजी ने कहा-‘मुझे राम के दर्शन नहीं हुए।’ हनुमानजी ने कहा-‘आपने पहचाना नहीं, जिन दो बालकों को आपने तिलक लगाए, वे ही राम और लक्ष्मण थे।’ तुलसीदासजी ने पुनः दर्शन करवाने के लिए उनसे प्रार्थना की। हनुमानजी ने कहा-‘अच्छा, फिर दर्शन होगा।’ उसके बाद तुलसीदासजी ने देखा कि दो सुन्दर किशोर बालक घोड़े पर जा रहे हैं। किन्तु इस बार भी वे पहचान न सके। हनुमानजी से भेंट होने पर उन्होंने समझाया- ‘घोडे़ पर जिन दो बालकों को आपने जाते देखा, वे ही दोनों बालक राम और लक्ष्मण थे।’ इस तरह गोस्वामी तुलसीदासजी राम और लक्ष्मण को देखकर भी पहचान न सके। यथार्थ में क्या ईश्वर-दर्शन ऐसा ही होता है कि ईश्वर-दर्शन हो और ज्ञान नहीं हो कि ईश्वरदर्शन हुआ? बाहर के दर्शन से, इन्द्रियां के ज्ञान से दर्शन होने पर वह परमात्मा का दर्शन नहीं होता। तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में लिखा है- रघुपति महिमा अगुन अबाधा। बरनब सोइ बर बारि अगाधा।। नव रस जप तप जोग बिरागा। ते सब जलचर चारु तड़ागा।। तुलसीकृत रामायण में योग का वर्णन भी किया है- सतगुरु ज्ञान विराग जोग के, विबुध बैद भव भीम रोग के।। मतलब यह कि रामचरितमानस में योग भी है, लेकिन देखने के लिए अन्तर्दृष्टि चाहिए। ‘उघरहिं विमल विलोचन ही के। मिटहिं दोष दुःख भव रजनीके।।’ इसको भी जानो। बाहर के दर्शन से क्या हुआ। कश्यप और अदिति ब्राह्मण थे और तप करने पर क्षत्रिय हुए। एक पद नीचे चले आए; क्योंकि क्षत्रिय, ब्राह्मण से नीचे होते हैं। माया दर्शन में माया के अंदर बहुत लाभ होता है। चमत्कारिक लोकों में जाना हो सकता है, लेकिन अपना ज्ञान नहीं होता। जबतक अपना दर्शन न हो, तबतक ईश्वर-दर्शन हुआ, कहा नहीं जा सकता। अन्दर में इसलिए दर्शन होगा कि जैसे-जैसे अन्दर जाओगे, बाहर की इन्द्रियों से छूटते जाओगे। स्वप्न में भी बाहर की इन्द्रियों से छूटा जाता है। यह विश्वास करना चाहिए कि अंतर्मुख होने से इन्द्रियों के ज्ञान से छूटते हैं। सुषुप्ति में भी इन्द्रियज्ञान से भिन्न रहते हैं। स्थूल शरीर मेेें जागने से ज्ञान होता है, उसमें तथा स्वप्न के ज्ञान से एवं सुषुप्ति के अचेतपन से भी छूटे रहोगे। यह अनुभूति की बात है, साधन की बात है। यही भक्ति-मार्ग में योग का स्थान आता है। भक्ति कहते हैं- सेवा करने को। किसी की आवश्यकता पूरी करनी, उनकी यह सेवा है। गंगा- सेवन करने लोग जाते हैं। वहाँ गंगा की सेवा क्या करो? गंगा में बकरी का बच्चा फेंकते हैं, लोग उसको लूटते हैं, यह भक्ति नहीं है। गंगाजल का स्पर्श करते हैं, पानी पीते हैं, उसकी हवा में रहते हैं; यह गंगा सेवन है। गंगाजी को कोई इच्छा नहीं, आप क्या सेवा कीजिएगा? जबसे ईश्वर का ज्ञान सुनकर वह ज्ञान प्राप्त करने लगे, तबसे ईश्वर-भक्ति आरम्भ हो गयी। ईश्वर की ज्योति भी आप देख सकें, तो मन पवित्र हो जाएगा। जो सत्संगी इसका यत्न जानते हैं, साधन-भजन करते हैं, अन्दर में कुछ भी पाते हैं, तब मन कैसा होता है, वे जानते हैं। वे पुनः-पुनः वैसा ही देखना चाहते हैं। जैसे-जैसे आगे बढ़ते जाते हैं, ईश्वर का प्रकाश मिलता गया, गोया ईश्वर का आशीर्वाद आता गया। ईश्वर की खोज में अन्दर-अन्दर चलना ईश्वर की भक्ति है। भक्ति वहाँ समाप्त हो जाती है, जहाँ ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन हो जाता है। तुलसीदासजी को बाहर में दर्शन नहीं हुआ। दर्शन होने पर भी वे पहचान न सके। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं- निर्गुण रूप सुलभ अति, सगुण जान नहि कोय । सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि मन भ्रम होय ।। इस पर लोग ध्यान नहीं देते। स्थूल पर ही लौ लगाए रहते हैं, आगे बढ़ना नहीं चाहते। चाहिए कि अंतर्मुखी होकर खोज हो। जो जहाँ बैठा रहता है, वह वहीं से चलता है। दृष्टि और मन को स्थिर करो। ‘बैठे ने रास्ता काटा। चलते ने बाट न पाई।।’ अन्दर में असली दर्शन होता है। अमायिक रूप का दर्शन करो। अन्दर चलने के लिए कबीर साहब ने कहा है-‘भक्ति का मारग झीना रे।’ उस पर चलने के लिए केवल चेतन आत्मा है। अपने को स्थूल दृष्टि में रखे हुए लोग सूक्ष्म दृष्टि में अपने को ले जाएँ। गुरु नानकदेवजी ने कहा है- भगता की चाल निराली । चाल निराली भगता केरी विखम मारगि चलणा ।। लबु लोभ अहंकार तजि त्रिसना बहुतु नाहीं बोलणा ।। ख्ांनिअहु तीखी बालहु नीकी एतु मारगि जाणा।। कठोपनिषद् में है- क्षूरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति । इसी बारीकी के कारण गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है- रघुपति भगति करत कठिनाई । कहत सुगम करनी अपार, जानइ सो जेहि बनि आई ।। जो जेहि कला कुसल ता कहँ, सो सुलभ सदा सुखकारी । सफरी सनमुख जल प्रवाह, सुरसरी बहइ गज भारी ।। ज्यों सर्करा मिलइ सिकता महँ, बल तें नहिं बिलगावै । अति रसज्ञ सूछम पिपीलिका, बिनु प्रयास ही पावै ।। सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी । सोइ हरि-पद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी ।। सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं । तुलसिदास एहि दसा-हीन, संसय निर्मूल न जाहीं ।। सफरी की तरह सूक्ष्म हो जाओ। अपने को बहुत सम्भालो और सूक्ष्म में होकर उस तक पहुँचो। इसके लिए कला (विद्या) है, गुरु से भजन भेद लो और उसका अभ्यास करो। हमलोग अभी संसार के स्थूल तल पर हैं। सूक्ष्म की ओर बढ़ने के लिए शाम्भवी मुद्रा अथवा वैष्णवी मुद्रा का अभ्यास करो। अंदर चलने के लिए साधन लो और करो। संभव नहीं कि सूक्ष्म दृष्टि का अभ्यास नहीं हो सकेगा। अबतक जो ज्ञान हुआ है, साधन किया है, उसमें यह दृढ़ हो गया है। ‘थोड़ा बनिज बहुत ह्वै बाढ़ी उपजन लागे लाल मई ।’ ‘श्रद्धा किं? करिय जहँ प्रीति । लखि न अभाव होइ विपरीती।।’ अभाव होने पर विपरीत नहीं हो, विश्वास डिगे नहीं, करता चला जाय। लेकिन अन्धविश्वासी नहीं बनो। साधन करोगे, तो अन्धी श्रद्धा नहीं रहेगी। कभी कुछ भी सफाई आ जाय, तो अहोभाग्य है। थोड़ी भी शान्ति आ गई तो अहोभाग्य है। यह जल्दबाजी की बात नहीं है। रामचरितमानस की नवधा भक्ति में है- प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।। गुरुपद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान । चौथी भगति मम गुन गन, करइ कपट तजि गान ।। मंत्र जाप मम दृढ़ विस्वासा। पंचम भजन सो वेद प्रकासा।। छठ दम सील विरति बहु कर्मा। निरत निरंतर सज्जन धर्मा।। सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मो तें सन्त अधिक करि लेखा।। आठवँ यथा लाभ सन्तोषा। सपनहुँ नहिं देखइ पर दोषा।। नवम सरल सब सन छल हीना। मम भरोस हिय हरष न दीना।। संतों का संग, कथा-प्रसंग, गुरु-सेवा, ईश्वर का गुणगान, मंत्र-जप; इस प्रकार पाँच भक्ति तक मन लगाने पर ही जोर है। छठी भक्ति में दमशील बनने कहा। शम-दम छोड़ दो तो योग कहाँ रहा? इन्द्रिय-निग्रह से मन सांसारिक विषयों को छोड़ता हैं सांसारिक विषयों को छोड़ने से निर्विषय की ओर होना होता है। तब ‘एहि तन कर फल विषय न भाई’ हो जाता है। मतलब यह कि छठी भक्ति में इन्द्रिय निग्रह होता है। सातवीं भक्ति है, मनोनिग्रह के लिए। मनोनिग्रह में एकाग्रता होती है और मन से चेतन आत्मा का संग छूट जाता है। यह अन्दर का रास्ता है। इस रास्ते में चलने को भक्ति कहते हैं। इसके अलावा जो भक्ति है, वह मनोनिग्रह के लिए ही है। पहले स्थूल उपासना करो। चाहे आप विष्णु की उपासना करो, शिव की उपासना करो वा शक्ति आदि की उपासना करो। इससे कुछ थोड़ा सिमटाव होता है; क्योंकि जिस रूप का ध्यान करोगे, उसमें कुछ सिमटाव होगा। श्रीमद्भागवत के एकादश स्कन्ध में भगवान श्रीकृष्ण ने उद्धव से कहा है कि- पहले मेरे सम्पूर्ण शरीर का, बाद में चेहरे का और फिर शून्य में ध्यान करो। दृष्टियोग से रूप का ज्ञान होता है और शब्दयोग से अरूप का ज्ञान होता है। आकाश में बिजली चमकती है, लेकिन ठोकर पहले लगती है। पहले ठोकर लगती है, आवाज होती है, फिर बिजली चमकती है। आदि में शब्द है, फिर ज्योति। कम्प और शब्द ऐसा है कि उसको कोई अलग-अलग नहीं कर सकता। शब्द के अभ्यास में जो खिंचाव है, उससे खिंचकर परमात्मा तक पहुँचा जाता है। चुम्बक सत्त शब्द है भाई, चुम्बक शब्द लोक ले जाई । लेइ निकारि होखै नहिं पीरा, सत्त शब्द जो बसै शरीरा ।। -दरिया साहब, बिहारी आदि नाम पारस अहै, मन है मैला लोह । परसत ही कंचन भया, छूटा बंधन मोह ।। -कबीर साहब ईश्वर तक पहुँचने के लिए नाम-भजन करो। नाम-भजन का भेद जानो। श्रवणात्मक ध्वन्यात्मक वर्णात्मक विधि तीन । त्रिविध शब्द अनुभव अगम, तुलसी कहहिं प्रवीण।। भेद जाहि विधि नाम महँ, बिनु गुरु जान न कोइ । तुलसी कहहिं विनीत वर, जां बिरंचि सिव होइ ।। बन्दउँ राम नाम रघुवर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को।। विधि हरिहर मय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो।। -गोस्वामी तुलसीदासजी मुँह से, मन से जो कहते-सुनते हो, वह निर्गुण शब्द नहीं है। नाम रूप दुई ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी।। -गोस्वामी तुलसीदासजी शब्द शब्द सब कोइ कहै, वो तो शब्द विदेह । जिभ्या पर आवै नहीं, निरखि परखि करि देह ।। -कबीर साहब वर्णात्मक नाम से ईश्वर की पहचान नहीं होती। जाति नाम और सिफाती नाम राधास्वामी पन्थ के दूसरे गुरु ने कहा था। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पंच पापों को मत करो। मनुस्मृति में अष्ट घातकों की चर्चा की है अर्थात् मारने की आज्ञा देनेवाला, मारनेवाला, टुकड़ा-टुकड़ा करनेवाला, बेचनेवाला, खरीदनेवाला, पकानेवाला, परोसनेवाला और खानेवाला; ये अष्ट घातक हैं। पण्डितजी कहते हैं कि खाने में दोष नहीं है, ऐसा भी लिखा है। मैं कहता हूँ- नहीं खाय तो महाफल होगा, ऐसा भी लिखा है। तो खानेवाले तो महाफल से वि०चत रहेंगे। एक योगी ने लिखा कि जल-जन्तु वा पशु के गुण उसके मांस में रहते हैं, उसके खानेवाले में पाशविक वृत्ति हो जाती है। एक महीने मांस-मछली नहीं खाओ और तब तुम्हारा मन कैसा रहता है, देखो और दूसरे महीने में खाकर देखो कि कैसा रहता है? दोनों को मिलाओ तो आप स्वयं छोड़ दोगे। महात्मा गाँधीजी ने अण्डा खाने के लिखा, सो लोगों ने पकड़ लिया। लेकिन अण्डा नहीं खाने के विषय में जो उन्होंने कहा, उसको माननेवाले कोई नहीं। हमलोगों को स्वराज्य प्राप्त है, लेकिन सुराज्य नहीं है। यह सुराज्य लाना जनता के हाथ में है। पंच पापों को छोड़ने से स्वराज्य में सुराज्य होगा। ईश्वर सर्वव्यापक हैं, ऐसा हमलोग मानते हैं। कितनों का ख्याल है कि ईश्वर सर्वव्यापक नहीं हैं। कोई कहते हैं कि निर्गुण ब्रह्म को अपने तईं का भी ज्ञान नहीं हैं। जैसे चार चीजें मिलाकर गण्डा होता है, उसी तरह से बहुत से अणु चैतन्य को मिलाकर ईश्वर होता है।’ ये सब गलत बातें हैं। लोगां को इन प्रचारों से बचना चाहिए। ईश्वर-भक्ति का मोटा प्रचार भी बहुत होता है। मोटी भक्ति भी नहीं छोड़ो और सूक्ष्म भक्ति को भी नहीं छोड़ो। राम के उपासक शिव के उपासक नहीं हैं, ऐसा कहना संकीर्ण बुद्धि का काम है। शिव के उपासक राम के उपासक या भक्त नही हैं, संकीर्णता है। पहले सगुण, पीछे निर्गुण उपासना होती है। अनेक निर्गुणों के ऊपर के निर्गुण को जानो। सांख्य दर्शन के अनेक निर्गुण पुरुषों के ऊपर एक ही एक निर्गुण है। इसीलिए हम उनको जानें। जिस निर्गुण ब्रह्म को अपने तईं का ज्ञान नहीं हैं, ऐसे प्रचार से बचो। निर्गुण तक पहुँचने के लिए निर्गुण शब्द को अवश्य पकड़ो। शब्द की समाप्ति जहाँ हो गई, तब ‘निःशब्दं परमं पदम्’ हो जाएगा। झूठ सब दुर्गुणों का थैला है। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार-इन पापों से बचो। कोई बड़ा है, लेकिन उसकी झुठाई पकड़ी जाय, तो उसका सारा बड़प्पन दूर हो जाएगा। द *************** *यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट के निकट गंगा तट पर 58वाँ वार्षिक महाधिवेशन के अवसर पर दिनांक 12. 4. 1966 ई0 को अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।* *************** पूरा प्रवचन को पढ़ने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद और साधुवाद! और अधिक से अधिक शेयर करें

आनंद और मंगल की जड़ सत्संग हैं -संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज

बीसवीं सदी के महान संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का प्रवचन को पूरा देखें 👇🙏👇 🙏🕉️ *जय गुरूदेव* 🕉️🙏 आनन्द और मंगल की जड़ : ...