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शुक्रवार, 8 जुलाई 2022

जुलाई 08, 2022

अंतर अजब बिलास-महर्षि हरिनंदन परमहंस जी महाराज

श्री सद्गुरवें नमः
आचार्य श्री रचित
पुस्तक "पूर्ण सुख का रहस्य" से लिया गया है।एक बार अवश्य पढ़ें 👇👇👇👇👇👇👇👇
: पूर्ण सुख का रहस्य
https://youtu.be/wmoLWGUsh_U
https://youtu.be/wmoLWGUsh_U
गो० तुलसीदासजी महाराज ने संतों के उत्कृष्ट गुणों का वर्णन करते हुए रामचरितमानस में लिखा है
 षट्विकार जित अनघ अकामा 
अचल अकिञ्चन सुचि सुख धामा ॥
 अमित बोध अनीह मितभोगी । 
सत्यसार कवि कोविद जोगी ॥

अर्थात् सन्त जन छः विकारों (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद तथा मात्सर्य) को जीते हुए, निष्पाप, वासना-रहित, स्थिरबुद्धि, धन-त्यागी, पवित्र, सुख के धाम, अति विशेष ज्ञानवान, इच्छा-रहित, अल्पभोगी, सत्यनिष्ठ, कवि, विद्वान और योगी होते हैं।

उपर्युक्त विशिष्ट गुणों को धारण करनेवाले संतजन परमात्मा रूपी धन को पाकर पूर्णकाम हो जाते हैं। उनके मन में संसार के अन्य किसी पदार्थों को पाने की चाहना नहीं होती। उन संत महापुरुषों के अतिरिक्त संसार के अन्य सभी लोगों के मन में विविध पदार्थों को पाने की चाहना बराबर होती रहती है।

सर्वसाधारण लोगों के मन में उस वस्तु को पाने की लालसा होती है, जो वस्तु उसे सुखदायक प्रतीत होती है। धन-सम्पत्ति, भोग-सामग्री, राज-पाट, पद-प्रतिष्ठा, स्त्री-पुत्र आदि की प्राप्ति में लोगों को सुख का बोध होता है, इस कारण स्वाभाविक रूप से लोगों के मन में इन सभी वस्तुओं को पाने की चाहना होती है।

धन-सम्पत्ति वगैरह भरपूर मात्रा में उपलब्ध रहने पर भी अगर उसे और अधिक पाने की चाहना मन में रहती है, तो यह चाहना अपने में कमी का बोध कराती है और जहाँ कमी है, वहाँ पूर्ण सुख भला कैसे हो सकता है।

सांसारिक वस्तु लोगों को कितनी ही अधिक मात्रा में प्राप्त क्यों न हो जाय, उसकी प्राप्ति से उनकी लालसा की समाप्ति नहीं होती, बल्कि उनकी वह लालसा अधिकाधिक बढ़ती जाती है। जिस प्रकार धधकती हुई आग में घी डालने से वह बुझती नहीं और अधिक प्रज्वलित हो जाती है। गो० तुलसीदासजी महाराज ने 'विनय-पत्रिका' में लिखा है

बुझे न काम अगिनि तुलसी कहुँ, विषय भोग बहु घी ते। चाहना की पूर्ण रूप से समाप्ति आत्मसाक्षात्कार होने पर ही होती है। जिस आत्मा का साक्षात्कार होने पर सब चाहनाओं की समाप्ति हो जाती है, उसके संबंध में सद्ग्रंथों में कहा गया है कि उसी परम तत्त्व के आधार पर सम्पूर्ण सृष्टि टिकी हुई है। वह आत्म-तत्त्व इस विश्व-ब्रह्माण्ड में सर्वत्र समष्टि रूप में व्यापक होकर उससे कितना अधिक बाहर है, यह कोई बतला नहीं सकता। ऋषिओं और संतों ने उस परम तत्त्व को 'परमात्मा' कहकर अभिहित किया है।

वह सर्वव्यापी परमात्मा बड़ा ही विलक्षण है। उसकी विलक्षणता का वर्णन गो० तुलसीदासजी महाराज ने रामचरितमानस में इस प्रकार किया है

बिनु पद चलइ सुनइ बिनु कान। कर बिनु करम करइ विधि नाना ॥ आनन रहित सकल रस भोग । बिनु बानी बकता बड़ जोगी ॥ तन बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ धान बिनु बास असेखा ॥ असि सब भाँति अलौकिक करनो । महिमा जासु जाइ नहिं बरनी ॥ ऐसे विलक्षण कर्म करनेवाले परम प्रभु परमात्मा की अद्भुत

• सामर्थ्य का बखान करते हुए गो० तुलसीदासजी महाराज ने कहा है कि उन प्रभु राम में असंख्य कामदेव के समान सुन्दरता है, करोड़ों दुर्गा के समान शत्रुओं का नाश करने की शक्ति है। वे परमात्मा सौ करोड़ इन्द्र के समान विलास करनेवाले और सौ करोड़ आकाश के समान परिमाण-रहित अवकाशवाले हैं। सौ करोड़ पवन के समान बड़े बली और सौ करोड़ सूर्य के समान प्रकाशवाले हैं। उनमें सौ करोड़ चन्द्रमा के समान शीतलता है तथा असंख्य काल के समान वे अत्यन्त कठिन, दुर्गम और अपार हैं। अपरिमित अग्नि के समान कठिनता से धरने के योग्य, अनगिनत पाताल के समान गहरे, अनगिनत यमराज के समान भयंकर, अनगिनत असंख्य तीर्थ के समान बहुत अधिक पवित्र, करोड़ों हिमालय के समान स्थिर और असंख्य समुद्रों के समान गहरे हैं। अनगिनत कामधेनु के समान समस्त इच्छाओं को पूर्ण करनेवाले और करोड़ों सरस्वती के समान बहुत अधिक चतुर तथा अनगिनत ब्रह्मा के समान सृष्टि करने में प्रवीण हैं। अनगिनत विष्णु के समान पालन करनेवाले और अनगिनत रुद्र के समान संहार करनेवाले हैं। सौ करोड़ कुबेर के समान धनवान और सौ करोड़ माया के समान छल की खान
तथा करोड़ों शेषनाग के समान भार-धारण करनेवाले हैं। इस तरह परम प्रभु परमात्मा की अद्भुत सामर्थ्य का बखान करते हुए गो० तुलसीदासजी महाराज ने अन्त में कहा है कि जिस तरह सूर्य को सौ करोड़ जुगनुओं के समान कहने में सूर्य की हीनता होती है, उसी तरह अपरिमित शक्तिवाले उस परम प्रभु परमात्मा के लिए सभी उपमाएँ अत्यन्त तुच्छ हैं। वास्तव में उन परम प्रभु परमात्मा की उपमा के योग्य और कुछ नहीं है। उनके समान वे ही हैं।

उस अद्भुत सामर्थ्य से युक्त परम प्रभु परमात्मा के स्वरूप का वर्णन हमारे परमाराध्य गुरुदेव महर्षि मेंहीं परमहंसजी महाराज ने इस प्रकार किया है- 'जो परम तत्त्व, आदि-अन्त-रहित, असीम, अजन्मा, अगोचर, सर्वव्यापक और सर्वव्यापकता के भी परे है, उसे ही सर्वेश्वर, सर्वाधार मानना चाहिए तथा अपरा (जड़) और परा (चेतन); दोनों प्रकृतियों के पार में अगुण और सगुण-पर, अनादि-अनन्त-स्वरूपी, अपरम्पार शक्तियुक्त, देशकालातीत, शब्दातीत, नामरूपातीत, अद्वितीय, मन-बुद्धि और इन्द्रियों के परे जिस परम सत्ता पर यह सारा प्रकृति मंडल एक महान यंत्र की नाई परिचालित होता रहता है, जो न व्यक्ति है और न व्यक्त है, जो मायिक विस्तृतत्व-विहीन है, जो अपने से बाहर कुछ भी अवकाश नहीं रखता है, जो परम सनातन, परम पुरातन एवं सर्वप्रथम से विद्यमान है, सन्तमत में उसे ही परम अध्यात्म-पद वा अध्यात्म-स्वरूपी परम प्रभु सर्वेश्वर (कुल्ल मालिक) मानते हैं।'

जो सर्वशक्तिमान परम प्रभु परमात्मा अत्यन्त सघनता के साथ समस्त प्रकृति-मण्डल में व्यापक होकर उससे बाहर भी हैं, वे ही परम प्रभु अंश रूप से सब शरीरों में विद्यमान हैं; किन्तु उनका वह अंश मायिक आवरणों से आच्छादित रहने के कारण 'जीवात्मा' कहलाता है।

जीवात्मा जबतक शरीर में विद्यमान रहता है, तबतक शरीर तथा शरीरस्थ सभी इन्द्रियाँ सक्रिय जान पड़ती हैं अर्थात् देखना, सुनना, खाना, पीना, उठना, बैठना इत्यादि क्रियाएँ होती रहती हैं। शरीर में विद्यमान वही चेतन तत्त्व जब शरीर से निकल जाता है, तब शरीर और शरीरस्थ सभी इन्द्रियाँ निष्क्रिय हो जाती हैं। ऐसा होने पर लोग कहते हैं कि अमुक व्यक्ति मर गया।शरीर से जीवात्मा के निकल जाने पर शरीर नष्ट हो जाता है; परन्तु जीवात्मा का नाश नहीं होता। परम प्रभु परमात्मा का अंश होने के कारण यह जीवात्मा भी अविनाशी है। यह अविनाशी जीवात्मा एक शरीर के नष्ट हो जाने पर पुनः दूसरे शरीर को ठीक उसी प्रकार धारण कर लेता है, जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को धारण कर लेता है। श्रीमद्भगवद्गीता के निम्नांकित श्लोक से इस कथन की सम्पुष्टि हो जाती है

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥

ईश्वर - परमात्मा का अंश-रूप यह जीवात्मा यद्यपि अविनाशी, चेतन, मल-रहित (निर्मल) तथा सहज सुख की राशि है, तथापि मायिक आवरणों से युक्त हो जाने के कारण इस जीवात्मा को अपने सहज स्वरूप का विस्मरण हो गया है। शरीर का संग हो जाने के कारण यह मायिक सुखों का भोगी हो गया है। मायिक सुख स्वल्प, परिमित तथा विनाशी होने के कारण जीवात्मा को इससे पूर्ण सुख प्राप्ति नहीं हो पाती। की

संत-महापुरुष बतलाते हैं कि अगर पूर्ण सुख प्राप्त करना चाहते हो, तो परम प्रभु परमात्मा के धाम में चलो। उस परम प्रभु परमात्मा के धाम में जाने का मार्ग बाहर में नहीं है। वह मार्ग तुम्हारे अपने ही अन्दर में है।

परमाराध्य गुरुदेव महर्षि मेंहीं परमहंसजी महाराज उस मार्ग के सम्बन्ध में कहते हैं कि वह अन्तर का मार्ग, जिसपर चलकर परमात्मा के धाम में पहुँच होती है, बड़ा ही अद्भुत है; लेकिन बिना सन्त सद्गुरु की शरण में गये उस अद्भुत मार्ग की जानकारी नहीं हो सकती

बिन दया सन्तन की 'मेंहीं', जानना इस राह को । हुआ नहीं होता नहीं, वो होनहारा है नहीं । परम दयालु गुरुदेव उस मार्ग की जानकारी करा देते हैं, जिसपर चलकर बहुत सुख मिलता है। गुरुदेव कहते हैं
[अद्भुत अन्तर की डगरिया, जापर चलकर प्रभु मिलते ॥ टेक ॥ दाता सतगुरु धन्य धन्य जो राह लखा देते । चलत पंथ सुख होत महा है, जहाँ अझर झरते ॥ अमृत ध्वनि की नौबत झहरत, बड़भागी सुनते । सुनत लखत सुख लहत अद्भुती, 'मेंहीं' प्रभु मिलते |

उस अन्तर- पथ पर अमृत की वर्षा होती है अर्थात् उस अन्तर-पथ पर चलनेवालों को ब्रह्मज्योति और ब्रह्मनाद की प्राप्ति होती है, जिससे अद्भुत सुख मिलता है; लेकिन जो बड़भागी होते हैं, वे ही अन्तर- पथ पर उस ब्रह्मनाद को सुन पाते हैं और उसके सहारे वे परम प्रभु परमात्मा के धाम में पहुँचकर परम सुख वा पूर्ण सुख को प्राप्त कर लेते हैं।
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महर्षि हरिनंदन बाबा कुप्पाघाट: https://www.youtube.com/playlist?list=PLud4sU56FoLnOF1jHHnl6Ad-wEtItI_Bs

बुधवार, 22 जून 2022

जून 22, 2022

अंतर अजब बिलास-महर्षि हरिनंदन परमहंस जी महाराज

पूज्य
आचार्य श्री महर्षि हरिनंदन परमहंस जी महाराज का प्रवचन 👇👇👇 पुस्तक 👇👇👇👇👇 -------------:अन्तर अजब बिलास:---------- सभी लोगों को ईश्वर ने बनाया। संसार के सभी जीवों का सृजन करनेवाले भी वे ही हैं। हमें जो कुछ भी चाहिए, उसे देनेवाले भी परमात्मा ही हैं। हम जो कुछ ग्रहण कर रहे हैं- अन्न, जल, हवा- सब कुछ के निर्माता भी वे ही हैं। यह सब परम प्रभु परमात्मा से प्राप्त करके भी हमारी स्थिति क्या है? हम शरीररूपी जेलखाने में पड़े हुए हैं। शरीर और संसार के कैदी बने हुए हैं। आप जैसा चाहते हैं, वैसा हो नहीं पाता। जैसे दिन के बाद रात और रात के बाद दिन होता है, उसी तरह से जीवन में सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख का क्रम लगा हुआ है। दुःख कोई नहीं चाहता, फिर भी वह आता है और उसे हमें भोगना पड़ता है, उसपर हमारा कोई वश नहीं होता। हम जैसा नहीं चाहते हैं, वैसा हो जाता है। ईश्वर-परमात्मा की मौज के सामने किसी की एक नहीं चलती। हम दुःखी होते हैं। ऐसा कबतक होता रहेगा? जबतक हम बंधन में रहेंगे। ईश्वर की जो मौज होगी, उसी के अन्तर्गत हमें रहना पड़ेगा। हमने फूस के छप्परवाले मकान बनाये, सोचा उसी में गुजर-बसर होगी, आँधी आयी और छप्पर उड़ गया, कच्चा मकान ढह गया। खेत-बगीचों में अच्छी फसल लगायी, पत्थर (ओले) गिरे और सारी फसल बर्बाद हो गयी। जैसा नहीं चाहते थे, वैसा हो गया। हम स्वाभाविक रूप से दुःखी हुए। ऐसा तबतक होता रहेगा, जबतक संसार में रहेंगे; क्योंकि संसार में एकरूपता नहीं रहती। आप चाहें कि दिन ही हो, रात न हो, तो यह संभव नहीं है। दिन हुआ है, तो रात भी होगी ही; सुख मिला है, तो दुःख होगा ही। यह संसार का नियम है। सुख में हम हर्षित होते हैं और दुःख में विलाप करते हैं। गो० तुलसीदासजी महाराज ने लिखा है- जड़ हरषहिं सुख दुख बिलखाहीं। दोऊ सम धीर धरे मन माहीं ॥ यह सुख-दुःख सबके जीवन में आते हैं। ये दिन-रात की तरह जीवन में साथ लगे रहते हैं। सामान्य मनुष्य ही नहीं, शरीर धारण करके जब-जब भगवान भी इस पृथ्वी पर अवतरित हुए, उन्हें भी दारुण दुःख झेलने पड़े। त्रेतायुग में भगवान श्रीराम ने राजसी सुख प्राप्त किया, तो वनवास का दुःख और पत्नी वियोग की पीड़ा भी सही, सम्राज्ञी सीताजी को वन-वन भटकना पड़ा और लक्ष्मणजी ने शक्तिवाण की मर्मतुद पीड़ा भोगी । द्वापर में पाण्डवों ने बारह वर्षों के वनवास और एक वर्ष के अज्ञातवास में कौन-सी पीड़ा न भोगी होगी। राज-सुख में रहनेवाले पाण्डवों ने कितना कष्ट झेला होगा, यह अकल्पनीय है। राजा नल भी द्यूतक्रीड़ा में अपना राज-पाट सव हार गये। उन्हें भी अपनी पत्नी के साथ एक धोती में जंगलों की खाक छाननी पड़ी। कितनी विपदा उन्होंने वनवास में सही, ठिकाना नहीं। जंगल में पति-पत्नी दुर्योग से राह भटक गये और अलग-अलग हो गये। कहाँ राज सुख और कहाँ यह दुर्दशा! वे वर्षों बाद मिले। वर्षों बाद उन्हें अपना राज्य भी पुनः प्राप्त हुआ। महाभारत में इसकी लंबी कथा है। अतीव सुख में रहनेवाले बड़े लोगों के जीवन में जब दुःख आते हैं, तो वे दुःख भी बड़े होते हैं। साधारण लोग ऐसी विपदाएँ, ऐसे दुःख को सह नहीं सकते। जीवन में हमेशा एक-सी स्थिति नहीं रहती सूरदासजी महाराज ने लिखा है संपति विपति विपति सों संपति, देह धरे को यहै सुभाई। शरीर धारण करने का यही स्वभाव है। सबके जीवन में ऐसा होता है। सुख-दुःख की आँख-मिचौनी से हम बच नहीं सकते, भाग नहीं सकते। कहाँ भागेंगे? संसार और शरीर दोनों ही कैदखाने हैं। हम तो स्वयं शरीररूपी कैदखाने को ढोते फिरते हैं। मृत्यु की मार झेलकर फिर इसी कैदखाने में आ जाते हैं, संसाररूपी कैदखाने में पहुँच जाते हैं। इससे छूट नहीं पाते, जिसमें दैविक, दैहिक और भौतिक-त्रय ताप लगे ही रहते हैं। ईश्वरीय कोप से उपजता है दैविक ताप। रोग-व्याधि से क्लांत हुए शरीर को दैहिक ताप सताता है। एक जीव द्वारा दूसरे जीव को पहुँचनेवाला कष्ट भौतिक ताप कहलाता है। इन त्रय तापों के अलावा एक ताप और है, जिसे झेलने के लिए मनुष्य अभिशप्त है, वह है- मानसिक ताप । काम, क्रोध, लोभ, मद, मत्सर, द्वेष, छल, कपट, पाखंड से उत्पन्न पीड़ा मानसिक ताप देती है। इस ताप से चित्त हमेशा अशांत और व्यथित रहता है। यह सब तबतक होता रहेगा, जबतक हम शरीर और संसार के बंधन में बँधे रहेंगे। प्रश्न उठता है कि इन बंधनों से हम कैसे छूटें? गो० तुलसीदासजी महाराज ने बताया है गुरु बिनु भवनिधि तरै न कोई। जौं बिरंचि संकर सम होई॥ ब्रह्मा, विष्णु और महेश जैसे देव ही क्यों न हों, गुरु की कृपा के बिना कोई भी संसार-सागर के पार नहीं उतर सकता। यही सहजोवाई भी कहती हैं हरि ने जन्म दियो जग माहीं। गुरु ने आवागमन छुटाहीं ॥ अर्थात् ईश्वर ने हमें यह मानव-शरीर तो दिया लेकिन बारंबार जन्म-मरण का अपार दुःख सहना पड़ता है, उस दुःख से छुटकारा दिलानेवाले गुरु ही होते हैं। हरि ने पाँच चोर दिये साथा। गुरु ने लई छुटाय अनाथा ॥ ये पाँच चोर हमारी पाँच ज्ञान-इन्द्रियाँ हैं। इनको ही चोर कहा। इसलिए कि इन्हें जो ग्रहण नहीं करना चाहिए, जिसे ग्रहण करके अन्त में दुःख ही दुःख होता है, ये उसे ही ग्रहण करती हैं, उसी दिशा में जाती हैं। आँखें रूप, कान शब्द, नाक गन्ध, जिह्वा रस और त्वचा स्पर्श ग्रहण की ओर हमेशा प्रवृत्त रहती हैं। इन पाँचों ज्ञान-इन्द्रियों की इस प्रवृत्ति से होता क्या है? हमलोग रोज पाठ करते हैं- 'मृगवारि सम सबहीं प्रपञ्चन्ह, विषय सब दुखरूप हैं।' उस ओर जाकर ये इन्द्रियाँ केवल दुःख ही दुःख का कारण बनती हैं; फिर भी ये बारंबार उधर ही उन्मुख रहती हैं। शरीर की ये पाँचो इन्द्रियाँ पाँच चोर हैं-'हरि ने पाँच चोर दिये साथा। गुरु ने लई छुटाय अनाथा ॥' गुरु इनसे छूटने का यत्न बतलाते हैं, ताकि ये इन्द्रियाँ उन विषयों की ओर नहीं जायें। आँख में चेतनधार आती है, तब आँख इन्द्रिय देखती है बाहर की ओर। कहते हैं, इस तरह से साधन करो कि चेतनवृत्ति का सिमटाव हो जाय। अगर आँख में चेतन-धार न आये, तो आँख इन्द्रिय बाहरी विषय की ओर प्रवृत्त नहीं होगी। विषयों से प्राप्त सुख क्षण-भर में दुःख में परिवर्तित हो जाता है। जैसे किसी प्रिय जन के आगमन की प्रसन्नता (आँखों द्वारा देख लेने का हर्ष), उसकी पीड़ा जानकर तत्काल दुःख में बदल जाती है। पुत्र की प्राप्ति पर अपार सुख हुआ; किन्तु उसकी मृत्यु हो गई, तो उतनी ही भीषण पीड़ा हो गयी। कहाँ रहा सुख? तो सब विषय दुःख रूप हैं। इस तरह इन्द्रियों से प्राप्त सुख उसकी समाप्ति पर दुःख में बदल जाते हैं। अतः इन्द्रियों से होनेवाले सुख में दुःख भी लगा हुआ है। इन्द्रियों के माध्यम से जिस ओर जाकर सुख ही नहीं, दुःख भी हो जाता है, उस ओर से इन्द्रियों को लौटाना चाहिए। जो नहीं देखना चाहिए, जो ग्रहण नहीं करना चाहिए, उसे ही इन्द्रियाँ देखना और ग्रहण करना चाहती हैं; इसीलिए उन्हें चोर कहा गया है। गुरु ही इसका भेद बतला सकते हैं कि इन्द्रियों की तृष्णा से कैसे छूटा जा सकता है। ऐसा विलक्षण ज्ञान देनेवाले गुरु हैं 'हरि ने रोग भोग उरझायौ, गुरु जोगी कर सबै छुटायौ ।' संसार में रहकर रोग, भोग, भय सब कुछ होता है, गुरु ही इससे छूटने का उपाय बतलाते हैं। सहजोबाई कहती हैं- राम तजूँ पै गुरु न बिसाऊँ।' सहजोबाई के गुरु थे चरणदासजी महाराज। उनकी वाणी में हमलोगों ने सुना है गुरु बिन और न जान, मान मेरो कहो। चरण दास उपदेश, विचारत ही रहो ॥ कहते हैं, गुरु के समान और कोई नहीं। उन्होंने कारण वेद रूप गुरु होहिं, कि कथा सुनावहीं। बतलाया पंडित को धरि रूप, कि अर्थ बतावहीं ॥ वेदों में बहुत तरह की बातें हैं। गुरु भी ज्ञानस्वरूप होते हैं। वे वेद के समान ज्ञान की बातों को कहते जाते हैं, विविध कथाएँ, उपदेश वे सुनाते हैं, समझाते हैं। वेद को पढ़कर सब कोई उसके रहस्य को समझ नहीं पाते, पंडित (ज्ञानी) ही उसके अर्थ को समझा पाते हैं, वैसे ही गुरु भी ज्ञान की गूढ़ बातों को, संतों के कथनों को, उनके रहस्य को बतला समझा देते हैं। कल्पवृक्ष गुरुदेव मनोरथ सब सरौं । कामधेनु गुरुदेव छुधा तृस्ना हरें ।। जिस तरह कल्पवृक्ष के नीचे जाने से सारी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं और कामधेनु के द्वारा सब तरह का भोजन प्राप्त होता है, ठीक वैसे ही गुरु की शरण में जानेवाले की सभी इच्छाएँ पूरी हो जाती हैं। जो गुरु को सदा याद रखते हैं, वे गुरु की शरण में हैं। जौं गुरु बसै बनारसी, शिष्य समुंदर तीर। एक पलक बिसरै नहीं, जो गुण होय शरीर॥ गुरु का शरीर चाहे दूर हो; परन्तु जो मन को गुरु के पास रखते हैं, समझिये कि वे गुरुरूपी कल्पवृक्ष की छाया में हैं। उनके मन में जो इच्छा होगी, वह पूर्ण होगी। गुरु की शरण में रहनेवाले को कोई कमी नहीं होती। गुरु सब कुछ देनेवाले हैं। जिन लोगों ने गुरु महाराज को प्रत्यक्षतः देखा है, उन्हें स्मरण होगा कि भक्त और श्रद्धालु जन नाना प्रकार की चीजें उनके लिए ले आते थे और वे चाहते थे कि उनके अर्जन में से थोड़ा-कुछ गुरुदेव की सेवा में लगे । ऐसे श्रद्धालुओं द्वारा अर्पित चीजों कि संख्या इतनी अधिक होती थी कि गुरु महाराज के सेवक ही नहीं, उनके आस-पास के लोग भी तृप्त हो जाते थे। ऐसा कुछ भी नहीं था, जो उनको अलभ्य हो । राजा-महाराजा को भी जो दुर्लभ होता है, वह सन्तों के पास परमात्मा की दया से सहज ही आता है। गुरु सब कुछ देनेवाले होते हैं। अनेक देवताओं की कृपा से जो प्राप्त हो सकता है, उसे गुरुदेव अकेले ही देनेवाले हैं। गंगा सम गुरु होय, पाप सब धोवहीं । सूरज सम गुरु होय, तिमिर हरि लेवहिं ॥ गंगा के लिए कहा गया है कि वह पाप धोनेवाली है। बाहर की गंगा में स्नान करके कोई पाप मुक्त हो जाये, ऐसा नहीं होता। जो गुरु की शरण में पड़े रहते हैं, वे पापों से मुक्त हो जाते हैं। तो फिर गंगा का उदाहरण क्यों दिया गया? संत लोग कहते हैं कि 'बाहर में जो आप गंगा देखते हैं, सिर्फ वही गंगा नहीं है। गंगा अवश्य पाप धोनेवाली है; लेकिन वह कौन-सी गंगा है? 'गगन धार गंगा बहै, कहैं संत सुजाना हो।' अपने अन्दर में जो गंगा है, वही असली गंगा है। उस गंगा में जो स्नान करते हैं, वे सब पापों से मुक्त हो जाते हैं। सन्तों ने आन्तरिक ज्योति और नादरूपी गंगा का उदाहरण दिया है। गुरु भी गंगा के समान सब पापों को धोनेवाले हैं। और 'सूरज सम गुरु होय, तिमिर हरि लेवहीं।' रात्रि का अंधकार दूर करने की सामर्थ्य किसे है? यह सामर्थ्य एकमात्र सूर्य में है, किसी और में नहीं। ठीक उसी तरह अज्ञान का जो घनान्धकार है, उसे दूर करने की सामर्थ्य सिर्फ गुरुदेव में है। गुरु महाराज कहते हैं-'तन-मन और धन को अर्पित करके गुरु चरणों की सेवा करो।' हम आसक्त होकर नहीं रहें-न तन में आसक्ति, न धन की आसक्ति और न मन में अहंकार की भावना। आसक्ति तजकर और सब कुछ गुरु के चरणों में अर्पित करके उनकी सेवा करें। गुरु महाराज की वाणी में आया है तन मन धन को अरपि, गुरूपद सेव करो। 'मेँहीँ' आज्ञा पालि, दुस्तर भव सुख से तरो ॥ वे कहते हैं कि अगर ऐसा करोगे, तो यह जो दुस्तर है, बड़ा भयंकर है, उसे सुख से तर जाओगे, पार कर जाओगे। जब अर्पित करेंगे तन, मन, धन को, तब गुरुदेव इस संसार सागर से पार कर देंगे, जिस संसार के लिए संत राधास्वामी ने कहा है कि भवसागर धारा अगम, खेवटिया गुरु पूर। नाव बनाई शब्द की, चढ़ बैठे कोइ सूर॥ यह संसार-सागर बड़ा भयंकर है। इसे कोई अपने आप तर नहीं सकता। अपना कोई बल नहीं, शक्ति नहीं, सामर्थ्य नहीं कि भवसागर को पार कर सकें। इसीलिए तो हमलोग रोज प्रार्थना करते हैं कि 'पर निज बल कछु नाहिं है, जेहि बने कमाई ।' गुरुदेव ही पार लगानेवाले होते हैं। कैसे पार लगायेंगे? जैसे हम विपत्ति में पड़ जाते हैं,तो लोगों को पुकारते हैं, लोग आते हैं और सहायता कर देते हैं। किसी का पाँव कीचड़ में फँस गया, उसने आवाज दी और लोगों ने उसे संकट से उबार लिया। उसी तरह से हम संसार सागर में, भव-पंक में धँसे हुए हैं। यहाँ लोगों को पुकारने से सहायता नहीं मिलेगी; क्योंकि संसार के समस्त जीव तो इसी पंक में धँसे हुए हैं। सन्त सद्गुरु ही हमारी पुकार सुनकर सहायता कर सकते हैं, वे ही संसार-सागर से, भव-पंक से जीव का उद्धार करनेवाले हैं। गुरु महाराज की वाणी का जो पाठ हुआ कि 'तुम साहब रहमान हो, रहम करो सरकार। भवसागर में हौं पड़ो, खेइ उतारो पार॥' 'रहमान कहते हैं, बहुत कृपा करनेवाले को, बहुत दया करनेवाले को। गुरु रहमान हैं, दयालु हैं, वे ही अनुग्रह करके इस संसार समुद्र से पार करनेवाले हैं। सूरदासजी महाराज भी कहते हैं- 'नीर अति गंभीर माया, लोभ लहरि तरंग।' वे संसार-सागर से उबारने के लिए प्रार्थना करते हैं अबके माधव मोहि उधारि । मगन हौं भव अंबु निधि में, कृपासिंधु मुरारि ॥ वे कहते हैं- 'मैं तो अज्ञानता के कारण इस भव-सागर में आ पड़ा हूँ और इसी में मग्न हूँ। आप कृपासिंधु हैं, दया करके हे माधव! मुझे उबारिये। इस संसार समुद्र में मायारूपी जल भरा हुआ है। संसार समुद्र का लंघन मेरे वश की बात नहीं है।' 'नीर अति गंभीर माया' - माया रूपी जल अगाध है, इसे पार करना संभव नहीं है। जो इसमें आ पड़ता है, इसे ही सत्य समझने लगता है और इसी में रमा रहता है। 'लिये जात अगाध जल में गहे ग्राह अनंग।' यह लोभ हमें खींचते हुए अगाध जल में लिये जा रहा है, जिसमें 'गहे ग्राह अनंग'। 'अनंग' कहते हैं कामदेव को काम की इच्छा को । इस अगाध जल में अनंग है, जिसने हमें पकड़ रखा है। 'मीन इन्द्रिय अतिहि काटत, मोह अघ सिर भार।' इन्द्रियरूपी मछलियाँ हमें काटती हैं, जैसे बच्चा भूख लगने पर माता को काटता-नोचता है, ठीक उसी तरह इन्द्रियाँ भी अपने-अपने भोग के लिए हमें पीड़ित करती हैं। आँख सुन्दर रूप देखना चाहती है, कान अच्छा शब्द सुनना चाहता है, नासिका सुगन्ध चाहती है, जिह्वा अच्छा रस चाहती है और त्वचा स्पर्श-सुख के लिए लालायित रहती है, जिस ओर जाकर दुःख ही दुःख होता है। सन्त राधास्वामीजी महाराज कहते हैं हे इन्द्रियन तुम भोग दिवानी, क्यों फँसो काल की फाँस । हे इन्द्रियो ! तुम भोग की ओर जा तो रही हो; लेकिन उस ओर जाने से काल के फंदे में फँसोगी। जैसे मछली चारे के लोभ में वंशी में फँस जाती है, उसी तरह तुम भी फँस जाओगी। जल्दी से अब मुख को मोड़ो, अंतर अजब विलास । जैसे बने तैसे करो कमाई, धर चरनन विश्वास ॥ वे कहते हैं कि बाहर से अपने मुख (वृत्ति, ख्याल) को मोड़ो। तुम्हारे अन्दर में अद्भुत सुख है- 'अन्तर अजब विलास'। जिस तरह से हो सके, कमाई करो; अपने अन्दर का वह धन प्राप्त करो, जो परम सुख देनेवाला है। इस कमाई को करने का ज्ञान देनेवाले संत सद्गुरु ही हैं, अन्य किसी से यह ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। गुरु महाराज की वाणी के अन्तिम चरण में हमने अभी-अभी सुना है- 'गुरु की अमित बलिहार।' सत्य है कि गुरु की महिमा अपरंपार है, उनसे बड़ा अपना कोई हितैषी नहीं है। अतः हमें चाहिए कि गुरु की शरण ग्रहण करें। उनके चरणों में अटल श्रद्धा रखें। हमारा मन भाग-भाग जाता है। इस चंचल और भाग-भाग जानेवाले मन के लिए सन्त कबीर साहब ने कहा है सिपाही मन दूर खेलन मत जैये । दूर खेलन से मनुवाँ दुखित होय... हमारा मन संसार की ओर भाग जाता है, बाहरी बातों को सोचने लग जाता है। गुरु महाराज के निकट रहकर भी दूर-दूर चला जाता है। संत कबीर साहब यही कहते हैं कि मन को दूर ले जाओगे, विषयों की ओर ले जाओगे, तो दुःख होगा। बाहर की ओर मत जाओ। अपने आपको बाहर से मोड़कर अन्दर की ओर करो, तब शाश्वत सुख की प्राप्ति होगी, शांति की प्राप्ति होगी। यह तब होगा, जब हम गुरु महाराज के चरणाश्रित होकर रहेंगे। जबतक उनके चरणाश्रित होकर नहीं रहेंगे, अपने अन्दर के सुख की प्राप्ति नहीं होगी। 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏 कमेंट जरुर करें वीडियो प्रवचन 👇👇👇 https://www.youtube.com/playlist?list=PLud4sU56FoLnOF1jHHnl6Ad-wEtItI_Bs

सोमवार, 6 जून 2022

जून 06, 2022

पुर्णिया की बात पुरानी नहीं -कविता

पुर्णिया की बात पुरानी नहीं जानी पहचानी हो गई
अब अपनी शुरु एक नयी कहानी हो गई।।
पुरानी बात को भूलकर नई जिंदगानी हो गई।
मैं अब स्वीकार करता हूं तू मेरी दीवानी हो गई।।
वादा करता हूं तुझे नहीं छोड़ेंगे
तुझसे मुंह न कभी मुंह मोड़ेंगे
सचमुच में तू मेरी दिलजानी हो गई।
तेरी मेरी शुरू एक नयी जिंदगानी हो गई।।
तुमसा कोई मिली नहीं, बेकार की परेशानी हो गई।
पुरानी बात को छोड़ो, किस्सा पुरानी हो गई।।
ना किसी का हुआ,ना किसी की है अब तुम भी मान गई।
बस कुछ दिन इंतजार कर
रिश्ता खानदानी हो जायेगी।।

शनिवार, 22 जनवरी 2022

जनवरी 22, 2022

दिल की आह -कविता

सोच सोच कर दिमाग खराब है
 लगता भगवान को यही स्वीकार हैं।।

सोच सोच कर बहुत रास्ता को छोड़ा
बच बच कर कितनों से मुंह को मोरा
अब तो चारों ओर से गिरफ्तार हैं
लगता मेरा सारा बुद्धि बेकार है।।

हंस हंस कर कितनों को टाला
सोचता था अपने को हिम्मतवाला
अब बात दिल और दिमाग से बहार है
क्या कहूं खुद कुछ कहने से लाचार हैं।।
~तरूण यादव रघुनियां
जनवरी 22, 2022

दिल का हाल

दुनिया का ये क्या दौर हैं
समझ लेता कुछ ही और हैं।।

कुछ देर के हंसी मजाक को समझ लेता प्यार है
जबकि खुद दोनों को ये बात नहीं स्वीकार हैं।।

दोनों के बिना रजामंदी से बंधन जोड़ते हैं
पता नहीं बीच में कितनो का दिल तोड़ते हैं।।

सोच सोच कर यार बहुत ही परेशान हैं
अब तो खाना पीना भी लगता हराम है।।
~तरूण यादव रघुनियां

जनवरी 22, 2022

दिल का दर्द

बात से अनजान था नहीं परेशान था
मेरा जिंदगी तो शानदार आसान था।।


 जबसे बात को जाना हूं उसको माना हूं
 अब दिन और रात का चैन खो गया
 पता नहीं यह मुझे क्या हो गया।।


 चारों ओर झूठी बात का शोर है
 उसी पर जोड़ है
 पता नहीं अब इसका क्या निचोड़ है।।


 सोच सोच कर घबरा रहा हूं 
क्या कहूं दर्द बता रहा हूं
 सच तो छुप गया झूठ की परछाई में
 हम तो घुंट घुंट मर रहा हूं रजाई में।।
~तरूण यादव रघुनियां

सोमवार, 22 नवंबर 2021

नवंबर 22, 2021

अमृत को नेत्रों से पान करो-सदगुरू महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज

।।ॐ श्री सद्गुरवे नमः।।
अमृत को नेत्रों से पान करो (साभार–सत्संग-सुधा सागर) आप सब यहाँ सत्संग के लिए एकत्रित हैं। सत्संग में बहुत तरह की बातें होती हैं। ऐसा नहीं कि जो आध्यात्मिकता के खिलाफ बातें हैं, वे भी होती हैं। मैं आपका ख्याल उधर ले जाना चाहता हूँ, जो आपने पहले सद्ग्रंथों के पाठ में सुना था। मेरा यह कायदा और सहारा भी है कि संतों की वाणी का मैं आदर करूँ और उसके सहारे चलें। संतों की वाणी को ही मैं सत्संग कहूँगा। जो मुझे जानते हैं, वे तो वैसे ही मुझे कहते होंगे कि संतों की वाणी का सहारा मुझे उतना ही है, जितना कि बिना वायु के श्वास कोई नहीं ले सकता। मण्डल ब्राह्मणोपनिषद् में संसार को समुद्र कहा गया है। उसमें निद्रा-भय जीव-जन्तु हैं, ऐसा बतलाया गया है। समुद्र में बड़े-बड़े जीव होते हैं और जीव को जीव निगल जाते हैं। उसी प्रकार नींद है। उसके पेट में जो जाते हैं, उसकी सुधिबुद्धि सब खो जाती है। भय भी उसी तरह है। भयातुर होकर अपनी शक्ति को लोग खो बैठते हैं। उसमें तृष्णा भँवर है, इसको पार करने के लिए सूक्ष्म मार्ग का अवलम्ब ग्रहण करें। जीव भँवर में चक्कर खाते हैं। ऐसे ही इच्छा की तरंग में पड़े हुए लोग सूक्ष्ममार्ग का अवलम्ब ग्रहण करें। सूक्ष्म का अर्थ है - महीन। सूक्ष्ममार्ग के लिए बतलाया गया कि उसके द्वारा किस तरह ब्रह्म का अवलोकन होता है। चन्द्र-बिम्ब अमृत को नेत्रों से पान करो। उसके दर्शन के लिए तीन प्रकार की दृष्टियाँ चाहिए। अमादृष्टि, प्रतिपदादृष्टि और पूर्णिमादृष्टि। पूरी आँखें बंदकर देखना अमादृष्टि है। आधी आँखें खोलकर और आधी आँखें बंदकर देखना प्रतिपदादृष्टि है, जिसे शाम्भवी मुद्रा कहते हैं और पूरी आँखें खोलकर देखना पूर्णिमादृष्टि है, जिसे वैष्णवी मुद्रा कहते हैं। इस तरह देखने से क्या होता है? तो कहते हैं कि इससे वायु की स्थिरता होती है, मन की स्थिरता होती है। क्या यह बात सत्य है? उपनिषद् की बातों को झूठलावें, मेरी समझ से बाहर है। दृष्टि वह चीज है, जहाँ पर यह ठीक से लगी रहती है, मन वहीं पर पड़ा रहता है। ऐसा नहीं होगा कि दृष्टि को एक जगह स्थिर किए हैं और मन दूसरी ओर भाग जाय। यदि ठीक-ठीक देखते हैं तो मन वहीं रहता है। दृष्टि डीम-पुतली को नहीं कहते, देखने की शक्ति को कहते हैं। दृष्टि स्थूल है या सूक्ष्म? दृष्टि को हाथ से आप नहीं पकड़ सकते। आप मेरी ओर देखते हैं और मैं आपकी ओर देखता हूँ, तो दोनों की दृष्टि दोनों पर पड़ती है, किन्तु उसे देख नहीं सकते। इस प्रकार दृष्टि सूक्ष्म है और मन भी सूक्ष्म है। सूक्ष्म को सूक्ष्म का सहारा मिलना अवश्य मानने योग्य है। इसलिए दृष्टि से मन का स्थिर होना पूर्ण सम्भव है। दूष्टि और मन दोनों सूक्ष्म है, इसलिए उपनिषद् का यह वाक्य सत्य है, ऐसा विचार में जँचता है। बाकी रही बात वायु-स्थिरता की। तो आप देखिए, किसी गम्भीर बात को सोचिए, तो मन इधर-उधर नहीं भागता। ऐसी अवस्था में श्वास-प्रश्वास की गति भी धीमी पड़ती है। आप स्वयं आजमाकर देख सकते हैं। मन की चञ्चलता में श्वास तेज होता है और मन की स्थिरता में श्वास की गति धीमी होती है। याद रहे कि मैं प्राण और प्राणवायु दोनों को एक ही नहीं मानता। योगिवर भूपेन्द्रनाथ सान्यालजी ने कहा था - ‘जैसे दूध में घी रहता है, उसी प्रकार वायु में प्राण रहता है। प्राणवायु वह है, जो वायु प्राण से सम्बन्धित हो। उपनिषद् में जो बताया गया कि दृष्टि-साधन से मन और वायु की स्थिरता होती है, बिल्कुल ठीक है और जो कहा गया कि भवसागर से पार हो जाओगे, वह भी ठीक है। यदि कहा जाय कि मन और वायु की स्थिरता में ईश्वर की प्राप्ति कैसे होगी? तो देखिए,मन के सिमटाव से ऊर्ध्वगति होती है, ऊर्ध्वगति से मायिक तल का छेदन होता है। माया के तल से ऊपर जाने पर निर्मायिक का दर्शन होता है। परमात्मा का दर्शन हमको इसलिए नहीं होता है कि हमने पहले जाना नहीं कि परमात्मा का दर्शन कैसे होता है। पहले जानो कि शब्द का ग्रहण कान से होता है। रूप का दर्शन आँख से होता है। परमात्मा तो बहुत दूर है, पहले आप अपने को जानिए। कोई ऐसा नहीं कहता कि मैं नहीं हूँ। मैं हूँ - ऐसा सबको विश्वास है। कहाँ हैं? तो कहेंगे - शरीर के अंदर हैं। शरीर के अंदर मनोवृत्ति के संग-संग हैं। जिस प्रकार दूध के संग-संग घी रहता है, उसी तरह मन के संग-संग जीवात्मा रहता है। एक आदमी है, जो चारचित लेटा पड़ा हुआ है। उसको उठकर कहीं जाना है, तो वह क्या करेगा? पहले हाथ-पैर समेटेगा, तब वह उठकर चलेगा। बिना हाथ-पैर समेटे चल नहीं सकता है। उसी प्रकार इन इन्द्रियों की सम्भाल जबतक नहीं होगी, तबतक परमात्म-दर्शन सम्भव नहीं। उसके लिए साधन बताया गया कि शाम्भवी मुद्रा का। अभ्यास करो। शाम्भवी मुद्रा तीन तरह की होती है। भगवान विष्णु को जहाँ देखिए, तो खुली आँखें, शिवजी को जहाँ ध्यानावस्थित देखिए, आधी आँखें खुली और आधी आँखें बन्द। भगवान बुद्ध को देखिए, तो आँखें बन्द। व्यासदेवजी भी आँख बन्द करके ध्यान करते थे, ऐसा चित्र मुझे मिला है। हमारे गुरु महाराज कहते थे कि आँखें खोलकर देखोगे, तो तुमको आँखों में कष्ट होगा। पाल ब्रंटन ने एक पुस्तक लिखी है, उसमें उन्होंने लिखा कि एकटक लगाओ। एक साधु थे, जिनकी आँखों से पानी टपकता था। आपको पोथी-प्रमाण की आवश्यकता नहीं। विचार से देखिए - जहाँ आपकी दृष्टि गड़ी रहेगी, मन वहीं रहेगा। मन सूक्ष्म है और दृष्टि भी सूक्ष्म है। इसलिए स्वजाति को स्वजाति से मदद मिलती है। मैंने श्रीभूपेन्दनाथ सांन्यालजी से पूछा कि प्राणायाम करके ध्यान करना चाहिए अथवा ध्यान करके प्राणायाम करना चाहिए। उन्होंने कहा - ‘प्राणायाम करके ध्यान करना चाहिए। मैंने कहा - 'श्रीगीताजी के छठे अध्याय में बैठने के लिए आसन और आसन के तरीके सब बतलाए हैं, किन्तु वहाँ प्राणायाम के लिए कोई जिक्र नहीं है। जहाँ-जहाँ मन भाग जाय, वहाँ वहाँ से लौटाने कहा है। ध्यान से प्राणस्पन्दन बन्द हो जाय, तो यही प्राणायाम हो गया। पहले दूध-मक्खन साथ-साथ रहते हैं। जहाँ दूध रहता है, मक्खन भी वहीं रहता है। फेफड़े में संकोचन-विकासन की क्रिया होती रहती है, किन्तु बाहर की वायु से नहीं, जीवनी शक्ति से। जीवनी शक्ति प्राण है। प्राण परमात्मा से उत्पन्न होता है और वायु आकाश से उपजती है। हाँ, हम जो बाहर से वायु खींचते हैं, वह प्राण से सम्बन्धित हो जाती है, इसलिए उसको प्राणवायु कहते हैं। यदि शाम्भवी मुद्रा से अभ्यास करें तो मन स्थिर हो जाता है। मन स्थिर हो जाता है तो प्राण भी स्थिर हो जाता है। दृष्टि का ऐसा प्रयोग है, जिससे मन स्थिर हो जाता है। स्थिरता में सिमटाव होता है। सिमटाव से मायिक आवरणों का छेदन होता है। मायिक आवरणों के छेदने पर उधर परमात्मा ही बाकी रहते हैं। उसे परमात्मा का साक्षात्कार होता है। अष्टांग योग में पहले यम, नियम और तब आसनसिद्धि के बाद प्राणायाम कहा, किन्तु प्राणायाम में ही समाप्त नहीं किया। प्राणायाम के बाद प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि भी कहा है। इसलिए पहले यम, नियम, आसनसिद्धि आदि और अन्त में समाधि होगी। प्राणायाम से आपदा भी हो सकती है, किन्तु ध्यान से आपदा नहीं होती। प्राणायाम से उन्माद भी होता है। ‘कल्याण' पत्र में ऐसा लेख भी निकला है। गुरु नानक, दादू दयाल, कबीर साहब, तुलसी साहब आदि संतों ने ध्यानयोग पर ही जोर दिया है। दृष्टिसाधन से आरम्भ करके अन्त तक का वर्णन किया। प्राणायाम के बाद ध्यान-योग में जाना ही पड़ेगा, किन्तु ध्यान-योग से प्राणायाम में नहीं जाना होगा। मन को ठीक-ठीक लगाओ, दृष्टि को ठीक-ठीक लगाओ, जैसा बताया गया है। अवश्य शांति मिलेगी। मेरे कहने का तात्पर्य ऐसा नहीं कि प्राणायाम नहीं करो। जिनसे निबहता है, करें; किन्तु खतरे से - आपदा से बचते रहें। बिना प्रत्याहार के धारणा नहीं होगी। बिना धारणा के ध्यान नहीं होगा। इसलिए पहले प्रत्याहार होगा। मन जहाँ जहाँ भागेगा, वहाँ-वहाँ से लौटा-लौटाकर फिर वही लगाया जाएगा, तो अल्प टिकाव अवश्य होगा। ‘रसरी आवत जात ते सिल पर पड़त निसान' यही धारणा होगी। फिर विशेष देर तक टिकते-टिकते ध्यान होगा और अन्त में समाधि होगी। केवल किसी एक पर जोर देना उचित नहीं। लोग पूजा-पाठ, मूर्ति-ध्यान करते हैं, इसमें भी एकाग्रता होती है। शरीर कपड़े की तरह बदलता है, किन्तु हम रहेंगे। हम पर जो संस्कार पड़ेगा, वह भी रहेगा। भगवान ने कहा कि जहाँ-जहाँ मन भागे, वहाँ-वहाँ से लौटा-लौटाकर लाओ। ऐसा संदेह नहीं करना चाहिए कि इधर साधना से गए और उधर सांसारिक भोग से भी। तो भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - कल्याणकारी कर्म करनेवालों की अधोगति नहीं होगी। ऐसा वर्णन है। उन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय में दृष्टिसाधन करने के लिए कहा - समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः। संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्।। अर्थात् काया, सिर और गले को समान एवं अचल करके और स्थिर होकर अपनी नासिका के आगे दृष्टि जमाकर, अन्य दिशाओं को न देखता हुआ देखे। नासाग्र ध्यान में भी भेद है। एक सेठ ने अपने गुप्त धन रखने का स्थान अपने बही-खाते में लिखकर रख दिया था कि अमुक महीने की अमुक तिथि के दिन, दोपहर के समय धन अमुक ताड़ गाछ की फुनगी पर रखा है। जब वह मर गया और उसके बेटे ने जब इसे पढ़ा, तो अति आश्चर्यित हुआ कि ताड़ वृक्ष तो अभी वर्तमान है, पर वहाँ तो धन है नहीं! और सोचा कि वहाँ धन रह भी सकता है कैसे? उसके पिता के समय का एक वृद्ध मुनीम था। जब लड़के ने इस विषय में उससे पूछा तब उस वृद्ध ने कहा - 'वह महीना, तिथि और वह समय आने दो, तो मैं बतला दूँगा।' जब वह समय आ गया, तब उस वृद्ध ने उस सेठ के पुत्र को उस स्थान पर ले जाकर ताड़ गाछ की फुनगी की छाया जहाँ पड़ती थी, वह स्थान बतला दिया और बोला कि इसी जगह में वह धन गड़ा है। सेठपुत्र ने कोड़कर अपना धन निकाल लिया। संत धरनीदासजी ने कहा - धरनी निर्मल नासिका, निरखो नैन के कोर। सहजै चन्दा ऊगिहैं, भवन होइ उजियोर।। निर्मल नासिका को समझो। शाण्डिल्योपनिषद् में भी नासाग्र का जिक्र आया है। विद्वान्समग्रीवशिरो नासाग्रदृग्भ्रूमध्ये। शशभृद्बिम्बं पश्येन्नेत्राभ्याममृतं पिवेत्।। विद्वान गला और सिर को सीधा करके नासिका के आगे दृष्टि रखते हुए, भुवों के बीच में चन्द्रमा के बिम्ब को देखते हुए नेत्रों से अमृत का पान करें। कुछ लोगों का कहना है कि आज्ञाचक्र से नीचे पाँच चक्र हैं। इनमें से पहले नहीं गुजरकर आकाश में ही कैसे उड़ने लगेंगे? तो मैं कहूँगा कि दोनों आँखों से दृष्टि की धार निकलती है। बिजली के गिरने से यदि कोई उसे देख लेता है, तो उसकी दृष्टिधार निकलते ही उसका शरीर भी छूट जाता है। दृष्टि शरीर का प्राण है। अजगर की दृष्टि किसी आदमी की दृष्टि पर पड़े तो अजगर की दृष्टि से उसकी दृष्टि मिलने से वह व्यक्ति उस ओर खिंचता चला जाता है। ‘शिवसंहिता' में भगवान शिव ने एक-एक चक्र के साधन का तथा उनके गुणों का वर्णन किया है। फिर आज्ञाचक्र के वर्णन में उन्होंने कहा है - पंच पद्मों का जो-जो फल (पंच चक्रों के ध्यान का जो-जो फल) होता है, सो समस्त फल आप ही इस आज्ञा कमल (आज्ञाचक्र) के ध्यान से प्राप्त हो जाएगा। आपके दोनों हाथों को पकड़कर कोई खींचे, तो तमाम शरीर उसी ओर खींचा जाएगा। उसी प्रकार दोनों दृष्टि की धारें जिधर खींची जाएँगी, संपूर्ण शरीर की धार उस ओर फिर जाएगी। इसी का वर्णन गुरु नानक, कबीर साहब आदि संतों ने किया है। जिसका मन एक क्षण के लिए भी उस ओर लग जाएगा, तो वह एकाग्रता का सुख और कुछ-न-कुछ झलक अवश्य देखेगा। यही साधन निरापद है। करते जाओ, सुगम साधन है। इसके साथ संयम करो। बिना संयम किए न हठयोग चलेगा, न दृष्टियोग और न शब्दयोग। इसलिए झूठ, चोरी, नशा, हिंसा, व्यभिचार मत करो। यदि कभी भूल से भी हो जाय, तो परमात्मा से प्रार्थना करो कि हमसे अब ऐसा न होने पावे। अपनी शक्ति भी लगाओ कि ये अपकर्म आपसे न होने पावें, केवल कहो नहीं। धन-सम्पत्ति के लिए जो बहुत दुष्कर्म करते हो, यह साथ जाने को नहीं है। साथ ही जब आपका शरीर छूट जाएगा और कहीं जन्म होगा, तब उस धन के लिए कहो कि मेरा धन है, तो आपको कौन दिला देगा? इसलिए धन-सम्पत्ति में आसक्ति मत बढ़ाओ। ध्यान करो। ध्यान करने के लिए पहले किसी नाम का जप करो, फिर जिस नाम का जप करते हो, जिसमें श्रद्धा हो, उसी से संबंधित रूप का मानस ध्यान करो। फिर – कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः। सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्।। - गीता, अध्याय 8/9 विन्दुध्यान करो। ध्यानविन्दूपनिषद् में आया है – बीजाक्षरं परम विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम्। सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परं पदम्।। - ध्यानविन्दूपनिषद् विन्दु के बाद शब्द का - नाद का ध्यान करो। ‘न नाद सदृशो लयः।' पहले विन्दु का ध्यान करो, फिर नाद का। इस प्रकार लोग नित्य अभ्यास करते हुए आगे बढ़ सकते हैं। कोई पूछे कि ईश्वर क्या है, तो पूछो कि रूप क्या है? जो इन आँखों से देखा जाय। उसी तरह जो चेतन आत्मा से ग्रहण हो, वह ईश्वर या परमात्मा है। चेतन आत्मा को जड़ का संग छूटे, इसी के लिए दृष्टि-साधन और शब्द-साधन है। दृष्टि-साधन करने की शक्ति प्राप्त करने के लिए मानस जप और मानस ध्यान है। इसके लिए ऐसा नहीं कि काम आज शुरू करो और आज ही खतम। भगवान बुद्ध ने 550 जन्मों में सिद्धि प्राप्त की थी। भगवान कृष्ण ने भी अनेक जन्मों की बात कही है। यह सुनकर शिथिलता लाने की बात नहीं। धीरे-धीरे करते जाओ, एक-न-एक दिन काम अवश्य समाप्त होगा। 🙏🙏🙏श्री सद्गुरु महाराज की जय 🙏🙏🙏 सभी सत्संगी बंधुओं से निवेदन है कि अधिक से अधिक शेयर करें जिससे और भी सत्संगी बंधुओं को लाभ मिल सके और पुण्य का भागी बनें 👇👇👇👇👇👇👇👇👇👇👇👇👇 संतमत प्रवचन के लिए लिंक पर क्लिक करें 👇👇👇👇👇👇👇👇👇👇

अंतर अजब बिलास-महर्षि हरिनंदन परमहंस जी महाराज

श्री सद्गुरवें नमः आचार्य श्री रचित पुस्तक "पूर्ण सुख का रहस्य" से लिया गया है।एक बार अवश्य पढ़ें 👇👇👇👇👇👇👇👇 : प...