आइये कुछ देर सदगुरू के वचन का अनुसरण करें
प्यारे लोगो!
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत क्षुरस्य धारा।
निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति।।
- कठोपनिषद्
( अरे अविद्याग्रस्त लोगो ! ) उठो , ( अज्ञान - निद्रा से ) जागो और श्रेष्ठ पुरुषों के समीप जाकर ज्ञान प्राप्त करो।
जिस प्रकार क्षुरे की धार तीक्ष्ण और दुस्तर होती है ,
तत्त्वज्ञानी लोग उस मार्ग को वैसा ही दुर्गम बतलाते हैं।'
जाग पियारी अब का सोवै।
रैन गई दिन काहे को खोवै।।''
जनम जनम तोहि सोवत बीते , अजहुँ न जाग सबेरे।''
भक्ती का मारग झीना रे।'
-कबीर साहब
खंनिअहु तीखी बालहु नीकी एतु मारगि जाणा।
- गुरु नानकदेव
मोह निसा सब सोवनिहारा।
देखिय सपन अनेक प्रकारा।।
एहि जगजामिनि जागहिंजोगी।
परमारथी प्रपंच वियोगी।।
- गोस्वामी तुलसीदासजी
क्या सोवै जग में नींद भरी।
उठ जागोजल्दी भोर भई।।
- राधास्वामीसाहब
लेटे और बैठे हुए को कहा जा सकता है
' उठो ! ' उठते ही वह ऊँचा हो जाता है।
और निद्रित रहकर यदि कोई स्वप्न या सुषुप्ति में रहता है , तब भी उसको कहा जाता है - ' उठो ! '
जब वह जगता है , तब वह जाग्रत् के स्थान पर आकर जाग्रत - अवस्था में आ जाता है।
स्थान बदलने से अवस्था बदलती है और तभी ज्ञान भी बदलता है।
सुषुप्ति का स्थान हृदय , स्वप़्न का स्थान कण्ठ और जाग्रत का स्थान आँख है।
नेत्रस्थंजागरितविद्यात्कण्ठे स्वप्नसमाविशेत्।
सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मूर्ध्नि संस्थितम् ।।
- ब्रह्मोपनिषद्
जीव का वासा जाग्रत में नेत्र में , स्वप़्न में कण्ठ में , सुषुप्ति में हृदय में और तुरीयावस्था में मस्तक में होता है।
अवस्थाओं के स्थानों को जानकर विदित होता है कि निद्रित रहनेवाला नीचे रहता है और जाग उठनेवाला ऊपर उठता है।
स्वप्न में रहनेवाले को साधारणतया यह ज्ञान नहीं होता है कि मैं स्वप्न में हूँ।
वह तब जो कुछ भोगता है , जो कुछ जानता है
और जो कर्म करता है , सबको सत्य ही प्रतीत करता है।
परन्तु जब ऊपर उठता है , जाग्रत के स्थान पर आकर जगता है ,
तब जगकर स्वप्न की सब बातों को मिथ्या बोध करता है।
जगने के स्थान से नीचे उतरने पर स्वप्न और उससे भी नीचे उतरने पर सुषुप्ति के स्थान पर जाकर पूर्ण रूप से अचेत हो जाना - दोनों ही बातें होती हैं सर्वसाधारण को यह नहीं ज्ञात है कि जगने के स्थान ( आँख ) से ऊपर उठा जाता है या नहीं?
यदि ऊपर उठा जाता है , तो उस स्थान का क्या नाम है?
उस स्थान पर पहुँचने पर कौन - सी अवस्था होती है और उस अवस्था में रहने के सदृश ही इस स्थूल जगत् - सम्बन्धी ज्ञान रहता है वा इससे भिन्न प्रकार का ज्ञान होता है?
चेतन विश्व - ब्रह्माण्ड और पिण्ड में ; दो रूपों ( समष्टि और व्यष्टि ) में परिव्याप्त है और वही अन्त : करण - व्यापी रहकर अन्तःकरण सम्बन्धी बाह्य करणों ( इन्द्रियों ) द्वारा ज्ञानगुण को प्रकाशित करता है और व्यष्टि चेतन कहलाता है।
संतमत में इसको सुरत भी कहते हैं। इसी का भिन्न - भिन्न अवस्थाओं में होना होता है।
भक्तयोगी अपनी सुरत को वा अपने को आँख के ऊपर के स्थान में ले जा सकते हैं।
इसका वर्णन उपनिषदों और सन्तवाणियों में भरपूर है।
ऊपर के स्थानों में तुरीय और तुरीयातीत ;
दो अवस्थाओं के नाम इनमें मिलते है।
पंचावस्थाःजाग्रत्स्वप्नसुषुप्तितुरीयतुरीयातीताः।
- मण्डलब्राह्मणोपनिषद्
जाग्रत् , स्वप्न , सुषुप्ति , तुरीय और तुरीयातीत ;
ये पाँच अवस्थाएँ हैं।
सर्वपरिपूर्णतुरियातीत ब्रह्मभूतो योगी भवति।
- मण्डलब्राह्मणोनिषद् , ब्राह्मण
पूर्ण योगी तुरीयातीत अवस्था को प्राप्त कर ब्रह्मस्वरूप हो जाता है।
तुरिया सेति अतीत सोधिफिर सहज समाधी।
भजन तेल की धार साधना निर्मल साधी।।
-पलटू साहब
जैसा कि ऊपर में वर्णन हुआ है , इससे जानना चाहिए कि स्थान - भेद से अवस्था - भेद हुआ और अवस्था - भेद में ज्ञान - भेद होता है।
तब आँख से ऊपर के स्थान पर पहुँचने से तुरीय अवस्था में रहकर जाग्रत् अवस्था - सदृश ज्ञान नहीं रहकर अवश्य भिन्न प्रकार का ज्ञान होगा ,
जो सर्वेश्वर परमात्मा की सूक्ष्म विभूति - सम्बन्धी होगा और जो ब्रह्म - संबंधी कहा जा सकेगा।
इस अवस्था में स्थूल इन्द्रिय - संबंधी विषयों से मन उपराम रहकर कथित सूक्ष्म विषय में अनुरक्त होगा और साधारण जाग्रत अवस्था तुरीयावस्था वाले के लिए स्वप्न - सदृश होगी।
माया मुख जागे सभे , सो सूता कर जान।
दरिया जागेब्रह्म दिसि , सो जागा परमान॥
- दरिया साहब
इसी अवस्था में आने के लिए ' उठो ,
जागो 'शब्दों का प्रयोग हुआ है।
जबतक कोई श्रेष्ठ पुरुष - गुरु के पास जाकर ज्ञान - लाभ नहीं करता है ,
इसी अवस्था में प्रवेश करने के लिए छुरे की धार - सदृश और बाल से भी बारीक सूक्ष्म मार्ग कहा गया है।
इस मार्ग पर शरीर को चलना नहीं है।
मन - सहित सुरत को चलाना है।
सूक्ष्म मार्ग पर सूक्ष्म यात्री यात्रा करेगा ,
इसमें आश्चर्य ही क्या?
चाहिए कि सत्संग हो और इस मार्ग को जाननेवाले तथा इस मार्ग के छोर को पकड़ने की युक्ति बतलानेवाले गुरु मिलें , इसपर चलने का अपना अत्यन्त अनुराग और आग्रह हो।
साथ ही , संयम में बरतते हुए , प्रमाद और शिथिलता से बचते हुए नित्य प्रति नियमित रूप से दृढ़ता के सहित अभ्यास होता रहे।
यह अन्तर - मार्ग है , इसी मार्ग पर चलनेवाला परमार्थी , योगी , भक्त कहलाता है
और परमार्थ स्वरूप परमात्मा को वह पाता है।
राम ब्रह्म परमारथ रूपा।
अविगत अलख अनादि अनूपा।।
सकल विकाररहितगत भेदा।
कहि नित नेति निरूपहिं वेदा।।
- गोस्वामी तुलसीदास
ऊपर कथित यत्नों को करो।
अवश्य उठोगे , अवश्य जगोगे और यह मोह - निशा समाप्त हो जाएगी।
मोह - निशा में रहना पशु - देह का काम है।
अब मनुष्य - शरीर मिला है , मोह - निशा का प्रभात हुआ है।
अब मत सोओ , जगो।
आइये सदगुरू महाराज की अनुभव वाणी को पढें शांति की अनुभूति होगी सरल सरल समझायें अधिक से अधिक शेयर करें जिससे और सत्संगी बंधुओं को लाभ मिल सके
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