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गुरुवार, 4 जून 2020

संत सदगुरू महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज की वाणी :ईश्वर तक पहुँचने का रास्ता एक हैं

 
बीसवीं सदी के महान संत सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज ने कहा कि
 ईश्वर तक पहुँचने का रास्ता एक ही है आइए आज इसी विषय पर पूरा विस्तार से पढ़ते हैं और जीवन में उतारने का प्रयास करते हैं गुरु महाराज ने अपने अनुभव से जो बताए हैं वह बहुत ही गूढ़ रहस्य है आइए उस रहस्य को जानने का प्रयास करते हैं
प्यारे लोगो!
सब लोग सुख चाहते हैं। सुख भी वह जो सदा रहे और जिसमें संतुष्टि हो। साधारणतया सब लोगों को जो विषयसुख होता है, उसमें सुख के बाद दु:ख और दु:ख के बाद सुख दिन-रात की तरह बरबस आते रहते हैं। इसमें पूरी संतुष्टि नहीं, इसलिए पूर्ण सुख भी नहीं। 
पूर्व के लोगों ने सोचा कि क्या ऐसा भी सुख हो सकता है, जिसके बाद दु:ख नहीं है। पहले उन लोगों ने विचारा, देखा - हम संसार की पीठ पर हैं, इसलिए ऐसा होता है। संसार से ऊपर चले जायँ, तब जो है वह परिवर्तन-शील नहीं। 
उसी को सब धर्मों के लोगों ने कोई ईश्वर, कोई अल्लाह कहा है। वह संसार से बिल्कुल उलटा है। संसार को पहचानने से पूर्ण सुख नहीं मिलता। पूर्ण सन्तुष्टि नहीं मिलती। किन्तु संसार के परे का जो पदार्थ है, उसको पाने से पूर्ण सन्तुष्टि और पूर्ण सुख होगा।
 संसार के सुख को इन्द्रियों से प्राप्त करते हैं, किन्तु उस सुख को इन्द्रियों से छू नहीं सकते। हमारी देह-इन्द्रियाँ माया से बनी हुई हैं। इसके अन्दर उस प्रभु का अंश जो इस शरीर में है, उसी से उस सुख को पहचानेंगे।
 शरीरस्थ उसी ईश्वर अंश को जीव कहते हैं। वह प्रभु भी इस शरीर में है और जीव भी। यही जीव उस प्रभु को छू सकता है। इसको पूर्व के लोगों ने ठीक से सोचा और प्रत्यक्ष पहचानने तथा पाने का यत्न किया। 
यत्न करने में सफल होने पर इस बात को संसार में विदित कर दिया। देह-इन्द्रियों के संग में रहकर क्या होता है, उसे लोग जानते हैं, किंतु इनका संग छोड़कर लोग देखें कि क्या होता है? शरीर, इन्द्रियों का संग छोड़ने के लिए चलना पड़ेगा। चलने के लिए बना हुआ रास्ता रहता है। 
या रास्ता बना लेते हैं। बड़े-बड़े रास्तों को लोग बनाते हैं, पगडंडी तो चलते-चलते ही बनती है।
 यूरोप, एशिया आदि सब महादेश के आदमियों के शरीरों में इन्द्रियाँ और द्वार जहाँ एक को हैं, वहीं दूसरे को भी है। तथा इन्द्रिय-द्वारों का कर्म सबका एक-सा है। 
सब शरीरों में जीवात्मा या रूह का भी रहना एक ही तरह है। इसी तरह परमात्मा की ओर चलने का मार्ग भी सब शरीरों में एक ही तरह है। बाहर में पूजा का ढंग भले ही अलग-अलग हो, किन्तु अन्दर का काम एक ही तरह होगा। 
भीतर का रास्ता एक ही है।
 रास्ता किसको कहते हैं?
 रास्ता कहते हैं लकीर को। 
जिसका एक किनारा एक स्थान पर हो और दूसरा किनारा दूसरे स्थान पर हो, बीच में कुछ फासला हो। 
हम जब अपने शरीर में परमात्मा की ओर चलेंगे तो इसका भी शरीर के भीतर-ही-भीतर कोई मार्ग अवश्य चाहिए।
 जब हम अपने शरीर को जानने लगते हैं, तो इसके दो भाग मालूम होते हैं। एक स्थूल भाग और दूसरा सूक्ष्म भाग। स्वप्न में जाने पर बाहर की इन्द्रियों में जैसे जान ही नहीं रहती है।
 इत्र यदि कान में या कपड़े में लगा है, तो जगने के समय उसका सुगन्ध मालूम होगा, किन्तु स्वप्न में नहीं। जागने में जीवनीधारा-रूहानी धारा जिस स्थान में रहती है, स्वप्न में वहाँ से भीतर की ओर हो जाती है।
 तन्द्रा के समय बाहर का कुछ खटखुट मालूम भी होता है और भूलते भी जाते हैं। उस तन्द्रा या अधनिनियाँ में जानने में आता है, शरीर की शक्ति भीतर को खींच रही है, गला झुक जाता है। वैदिक धर्म के माननेवाले को एक तरह, कुरान माननेवाले को दूसरी तरह और बाइबिल को माननेवाले को तीसरी तरह नहीं मालूम होता, एक ही तरह मालूम होता है। 
इस तरह जाना जाता है कि सब कोई एक तरह भीतर में चलते हैं। चलने में एक चैन मालूम होती है।
 सब मजहबों के वास्ते ईश्वर से मिलने के लिए चलने में एक ही रास्ता है। किसी पहाड़ पर या किसी समुद्र के तट पर ईश्वर का दर्शन हो जाय, संभव नहीं। पनडुब्बी जहाज से पानी के भीतर जाने पर भी वहाँ ईश्वर का दर्शन नहीं हो सकता।
 चाहे घर में बैठा रहे या मक्का या बद्रीनारायण में उसका दर्शन नहीं होगा। 
किंतु इन स्थानों में कहीं भी रहे, अपने अन्दर-अन्दर चले तो वहीं दर्शन होगा। बाहर की दुनिया में चलने से शरीर और इन्द्रियों से संग छूटता है।
 यह स्वप्न में जाने की स्वाभाविक क्रिया से जाना जाता है। भीतर में रवानगी के लिए ख्यालों को छोड़ना पड़ता है। बहुत चिन्तित आदमी को नींद नहीं आती है। चिन्ताओं को - ख्यालों को छोड़ने से अंतर में प्रवेश करेंगे, ऐसा पहले के लोगों ने सिद्धांत निकाला।
 किसी प्रकार का ख्याल नहीं रहे, यह भी असंभव है। तो ग्रंथों में लिखा भी है कि अपने को किसी एक पर लगाओ। कोई राम, कोई शिव, कोई गुरु किसी एक पर लगाते हैं।
 इसलिए हमारे यहाँ मूर्तिपूजन है कि बारम्बार उसको देखो। बारम्बार के दर्शन से उसका रूप अन्दर में छप जाएगा, फिर उसका ध्यान करो। इसलिए नहीं कि केवल उसको दण्डवत् करके चले जाओ। लोग कहते हैं मिट्टी, पत्थर या धातु पूजते हैं। तो मिट्टी, पत्थर या कोई धातु नहीं पूजता है, वह जो उसी शकल को पूजता है - ध्यान करता है। 
बौद्ध धर्म के लोग बुद्ध की मूर्ति बनाते थे, इसलिए कि मूर्ति बनाते-बनाते उसका रूप उनके हृदय में छप जाता था। कोई भी लिपि लिखो, जब वह दिमाग में छप जाता है, तब लिखते हैं। वैदिक धर्म के अन्दर भी ऐसे लोग हैं, जिनको किसी मूर्ति का ध्यान करना पसंद नहीं होता। 
किंतु कोई मोटा रूप अवश्य लेते हैं। आर्य समाज में नारायण स्वामी एक साधु हुए। वे पहले बड़ा गोलाकार, फिर छोटा एवम् प्रकार से छोटे-से-छोटा बनाकर ध्यान करने को कहते हैं। कोई ॐ लिखकर ध्यान करते हैं।
 कोई अल्लाह लिखकर ध्यान करते हैं, कहते हैं चाँदी जैसे चमकने लगता है। कोई फनाफिल लिखकर ध्यान करते हैं। कोई मुर्शिद के चेहरे का ध्यान करते हैं, फनाफिल मुर्शिद हो जाते हैं। उनको विश्वास है कि फनाफिल मुर्शिद से फनाफिल रसूल हो जाएँगे और फिर वही अल्लाह हो जाएँगे। इसमें जिस किसी रूप पर अपनी श्रद्धा हो वह लीजिए। 
साम्प्रदायिक खैंच में नहीं पड़िए कि खास करके यही होना ही चाहिए। रूप के सहित नाम अवश्य रहेगा और ऊँचे दर्जे में जाकर नाम रहेगा और रूप नहीं रहेगा। 
अर्थात् शकल नहीं रहेगा, निराकार नामी और नाम रहेगा। कोई-न-कोई एक शब्द जपना, वह भी एक पर अपने को लगाना है। किसी एक रूप पर मन लगाना यह भी मन को एकओर करना है, किन्तु यह पूर्ण रूप से एकओर होना नहीं है। वर्णात्मक शब्दों का टुकड़ा वर्णों में होता है और मूर्ति का अंग-प्रत्यंग में। शब्द जपने में और रूप ध्यान करने में भी कुछ फैलाव है, पूर्ण सिमटाव नहीं। 
इसलिए किसी ऐसा एक पर आओ, जिसमें फैलाव नहीं। वही है नोख्ता या विन्दु। इसमें फैलाव नहीं है, देखने के यत्न से देखो। इसको मन से बनाने की आवश्यकता नहीं। पेन्सिल की नोक जहाँ रखेंगे, वहीं विन्दु बनेगा, उसी प्रकार दृष्टि की नोंक जहाँ रखेंगे, वहीं ज्योतिर्विन्दु का उदय होगा। 
किंतु इसका गुर किसी गुरु से जानना चाहिए। एक स्थान पर दृष्टिधारों के आकर टिकने से विन्दु उदय होता है और पूर्ण सिमटाव हो जाता है।
सुन्नहि मारग आइया, सुन्नहिं मारग जाइ।
 चेतन पैंड़ा सुरति का, दादू रहु ल्यौ लाइ।। 
     - संत दादू दयाल

यही रास्ता का छोर है। यहीं से रास्ता पर चलकर ईश्वर के पास सब धर्म के लोग जाते हैं। शरीर-इन्द्रियों को छोड़कर शरीर के अन्दर-अन्दर चलते हैं। यही एक रास्ता है। पथिक को ब्रह्मज्योति का सहारा मिलता है। 
एकविन्दुता प्राप्त करने पर उसको प्रकाश मिल जाता है, यही रास्ता और सहारा होता है। जिस प्रकार जल में तैरनेवाले का रास्ता भी जल ही है और सहारा भी जल ही है, उसी प्रकार प्रकाश ही सहारा और रास्ता भी है। 
इसके बाद -
बीजाक्षरं परम विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम्।
 सशब्दं चाक्षरे क्षीणे नि:शब्दं परमं पदम्।। - ध्यानविन्दूपनिषद्

विन्दुपीठं विनिर्भिद्य नाद लिंगमुपस्थितम्। - योगशिखोपनिषद्

केवल नाद रहेगा, ओ३म् रहेगा, इसमें आजम रहेगा। यह ज्योतिर्मार्ग और शब्दमार्ग सबके लिए है, जो अपने अन्दर प्रवेश करता है। हाँ, एक बात अवश्य है कि ज्योति छूट जाती है और शब्द रह जाता है, किन्तु यह शब्द भी जहाँ जाकर लय हो जाता है, वहीं रास्ता का ओर या अन्त हो जाता है। 
तब आप रह जाएँगे और आपको प्रभु मिल जाएँगे। 
इसी मार्ग का उपदेश गुरु महाराज करते थे।

सुरत शिष्य शब्दा गुरु मिलि मार्ग जाना हो।
          - तुलसी साहब
हम सब लोगों का ईश्वर एक है, उस तक पहुँचने के लिए रास्ता भी एक ही है; उस अन्तर मार्ग को पकड़कर हमलोग चलें।
।।जयगुरू ।।
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